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________________ ११० ] भगवान पार्श्वनाथ । वाले आकाशने वहांके लोगोंकी बुद्धिको उस समय विस्मित कर दिया था और विना किसी प्रकारकी नकावटके धड़ाधड़ पड़ती हुई इन्द्रनीलमणियोंकी कांतिसे अंधकारित आकाशमें सूरजकी किरणें असमयमें ही कुंठित होगई थीं।'' कभी पद्मरागमणियोंकी वर्षासे आकाश लाल होनाता था तो कभी सुवर्ण वर्षासे पीला ही पीला नजर आता था । सचमुच रत्न आदि निधियोंकी उस समय इतनी वर्षा हुई थी कि उनको ग्रहण करनेवालोंको तृष्णा भी सकुचा गई थी। इन्द्रकी आज्ञा पाकर छप्पन दिक्कुमारियां भी शीघ्र ही बनारसमें आई थीं। विशाल और उन्नत राजभवनमें प्रवेश करके उनने रानी ब्रह्मदत्ताके दर्शन पाके अपनेको कृतार्थ माना था। उस अनुपम रूपवान् रानीकी वन्दना करके के देवियां उसकी सेवा करने लगीं। 'कोई तो महाराणीका उवटन करने लगी, जिसके कारण वह विश्वसेनकी प्रियतमा अमृतमयी मरीखी सुशोभित होने लगी और कोई उसे सुन्दर अलंकार एवं चन्दनहार पहनाने लगी जिससे उस रानीका मुख ताराओंसे वेष्टित चंद्रबिम्ब जैसा सुन्दर दिखने लगा। कभी वे देवियां उसके मनको अलौकिक नाच नाचकर मुग्ध करतीं तो कभी मनोहर रागोंको अलाप कर उसे प्रसन्न कर देतीं ।' यह दिन उन महारानीके लिये बड़े ही मनोरम थे। उनकी सेवामें ये सुर-कन्यायें सदा उपस्थित रहती थी। महारानी भी सदैव प्रसन्न-चित्त रहा करती थीं और धर्माराधनमें दत्तचित्त रहती थीं। महाराज विश्वसेन भी इस विभूतिको देखकर बड़े ही प्रसन्न होते थे । वास्तवमें धर्मकी महिमा ही अपार है । पुण्य प्रभावसे अलौ५-पार्श्वचरित (कलकत्ता) पृ० ३.२ । २-पूर्व• पृ० ३४०-३४१ ।
SR No.022598
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1928
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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