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________________ यथाकृत पात्रना अभावमा परिकर्मित पात्र ग्रहण करवा पडे तो ज ग्रहण करवा अने अपवादरूपे त्रण वार थीगडी लगाइवी अने लेप करवो. ते उपरांतने माटे निषेध समजवो. आहारादि ग्रहण करती वखते पात्र पातळ होय अने भांगी पडवानो भय रहेतो होय तो बीजानुं पात्र मांगीने ते समये चलावq परंतु तेनु पात्र पुन: पाछु आपी देवू. जे पात्रमा थोडो आार समाय ते लघु पात्र समजवू. कदाच कोई देशमां तुंबानुं तथा काष्ठनुं पात्र मळतुं होय परंतु त्यां जवानो मार्ग विषम-भयावह होय तो पोताना भांगेल पात्रने थीगडी दईने राखq. __ हवे थीगडी देवानो अधिकार जणावतां कहे छे के - “जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधेतं वा साइज्जइ जे भिक्खू एगेणं बंधेणं बंधइ, बंधेतं वा साइजइ, जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधइ बंधेतं वा साइज्जइ।" एटले के जे साधु पात्राने अविधिए बांधे अगर तो बांधनारने सारो जाणे तेने दोष लागे. जे साध एक बंध (थीगडी) थी बांधे अगर तो बांधनारने अनुमोदे तेने आलोयण आवे. जे साधु पात्राने त्रण करतां वधारे थीगडी लगावे अगर तो लगाडनारनी अनुमोदना करे तो तेने दोष लागे. स्वस्तिकबंध अने स्तेनबंध ए अविधि छ; ज्यारे मुद्रिका तथा नौ (जहाज) बंध ए विधिपूर्वकनो बंधछे. बंध न करवो पडे एवं पात्र ग्रहण करवं, अने ते न मळे तो एक थीगडी लगाववी पडे तेवू पात्र स्वीकारवू. तेवू पात्र पण न मळे तो बे अगर त्रण बंध बांधवा गडे तेवू ग्रहण करवू परंतु तेथी वधारे बंध बांधे तो आज्ञाभंगनो दोष लागे अने प्रायश्चित स्वीकारवू जोईए. आ संबंधमां अपवाद मार्गनुं सूचन करतां कहे छे के–“जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवडाओ मासाओ परेण धरइ धरेंतं वा साइज्जइ ।” अर्थात् कारणवशात् त्रण बंध उपरांतनुं पात्र राखq पड्यु होय तो तेने दोढ मासथी (४५ दिवसथी) विशेष समय राखवू नहीं. जो राखे तो अन्य उपकरणोनो नाश थाय, ज्ञानादिकनी विराधना थाय, शरीरने पीडा उपजे अने भिक्षा-गोचरी न मळे, वळी चारित्रविराधना थाय अने मरणांत उपसर्ग पण आवी पडवानो भय रहे माटे समचोरस अगर तो गोळ पात्र ग्रहण करवं, जे भूमि पर रही शके. वळी आ वस्त्र तथा पात्र साधुए केटला केटला राखवा अने केटला मोटा राखवा ते संबंधी विशेष वर्णन श्रीनिशीथसूत्रनी चूर्णीना सोळमा उद्देशामां, बृहत्कल्पना त्रीजा उद्देशानी टीकामां तथा ओघनियुक्तिमा जणावेल छे, माटे विशेष जाणवाना जिज्ञासुए त्यांथी जोई ले. वसति संबंधी विवरण - ज्यारे मुनि समुदाय विशेष होय अने वसति (उपाश्रय) सांकडी होय त्यारे एक, बे अगर तो त्रण वसति पडिलेहवी. चातुर्मासमां पण त्रण वसति पडिलेहवी. हवे केवी वसति शोधवी अगर तो पसंद करवी ते संबंधे जणावतां कहे छे के–“मूलुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं। सेवेज्ज सव्वकालं, विवज्जए हुंति दोसाओ ॥१॥" मूळ अने उत्तरगुणथी शुद्ध, स्त्री, तिर्यंच अने नपुंसकथी रहित होय एवी वसतिमां ज हमेशने माटे निवास करवो, तेनाथी विपरीत-मूळ अने उत्तरगुणथी रहित अने स्त्री, तिर्यंच तथा नपुंसकवाळी वसतिमां जो रहे तो दोषोत्पन्न थाय. आवी श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ७०
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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