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________________ दिट्ठीवाए य४ । एसा चउब्विहा खलु, कहा उ अक्खेवणी नाम ॥ १ ॥" आक्षेपणी कथाना चार भेद छे—आचार, व्यवहार, प्रज्ञप्ति अने दृष्टिवाद. आचार एटले श्रोताने साधुओनो आचार बताववो, एटले के साधुए लोच करवो, उघाडे पगे विहार करवो, जोई-तपासीने (ईर्यासमितिपूर्वक) चालवू, उघाडे मुखे न बोलवू, प्राण जाय तो पण सचित्त पाणी न पीयूँ इत्यादि आचार दर्शाववो ते. आ प्रमाणे कहेवाथी श्रोता सम्यकत्त्व पामे अने बीजा मिथ्यात्वीना पाशमां न फसातां आवी क्रियावाळा शुद्ध गुरु होय तेने ज वांदे. बीजो भेद व्यवहार एटले साधुनो व्यवहार दर्शावे के-कोईनी सोय मांगी लाव्या होय अने प्रमादथी देवी भूली जवाय अने रात रही जाय तो एकमासीनो दंड आवे, कोई गृहस्थादि पासे पग चंपावे अगर तो मसलावे तो निशीथसूत्रमा कहेल चारमासी दंड आवे, एवी ज रीते गृहस्थनी भाषा बोले अगर तो गृहस्थ पासे बोजो वहन करावे तो पण दंड आवे-आ प्रमाणे कहेवाथी श्रोतानुं मन मिथ्यात्वथी उतरी जाय अने शुद्ध संयमना पालक साधु प्रत्ये अनुराग प्रगटे. त्रीजो भेद पन्नती छे, एटले के कोई श्रोताना मनमा शंका उपजे अने ते गुरुने पूछे तो तेने मधुर वचनथी जवाब आपे, तेने जीवाजीवादि तत्त्वोमां श्रद्धा उपजे अने मनमां एवो निर्णय थाय के साधु हितकारक कहे छे अने मनमां लेशमात्र पण रोष नथी. आ प्रमाणेना वर्तनथी श्रोताजन वधु दृढ बने छे. चोथो भेद दृष्टिवाद छे एटले के श्रोता समजु-ज्ञानवंत होय तो तेने जीवाजीवादिक तत्त्वोनुं सूक्ष्म वर्णन समजावे-कहे जेथी श्रोताना मनमां आश्चर्य उत्पन्न थाय के आवं सूक्ष्म-तलस्पर्शी ज्ञान वीतराग परमात्मा सिवाय कोण कही शके? आ प्रमाणे तेने समकित प्रत्ये दृढ अनुराग थाय. आ चार भेदो आक्षेपणी कथाना छे. केटलाक आचार्यों आ चार भेदोना अर्थ ते ते नाम प्रमाणेना सत्रो कहे छे. आचारांग व्यवहारसत्र. प्रज्ञापना अने दष्टिवाद. आदि शब्दथी बीजा पण भेदो जाणवा, परंतु मुख्यपणे आ चार भेद कह्या छे. हवे आक्षेपणी कथानो रस वर्णवतां कहे छे के–“विज्जाचरणं च तवो, पुरिसक्कारो य समिइगुत्तीओ। उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ अक्खेवणीइ रसो ॥ १ ॥" अर्थात् भावरूप अंधकार-अज्ञाननो नाश करनार ज्ञान ते विद्या, संचित कर्मनी निर्जरार्थे जे तपश्चर्यादि करवामां आवे ते तप, कर्मरूपी शत्रुने हणवा माटे जे उद्यमशीलपणुं ते पुरुषार्थ, पांच समिति अने त्रण गुप्ति-आवा प्रकारनी जे कथा करवी - उपदेश आपवो ते आक्षेपणी कथा- रहस्य छे. विक्षेपणी कथाना चार भेद दर्शावतां कहे छे के “पुब्बि ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ, ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उवदंसेइ एसा पढमा १ । पुदि परसमयं कहित्ता तस्सेव दोसे उवदंसित्ता पुणो ससमयं कहेइ गुणे उवदंसेइ एसा बिइया २ । मिच्छावायं कहित्ता सम्मावायं कहेइ, परसमयं कहित्ता तेसु चेव परसमएसुजे भावा जिप्पणीएहिं भावेंहि सह विरुद्धा असंता चेव विअप्पिआ ते पुट्वि कहित्ता दोसा य तेसिं भणिऊण पुणो जिणप्पणीयभावसारिसा घुणक्खरमिव कहवि सोभणा भणिया ते कहेइ अहवा मिच्छावाओ नत्थित्तं सम्मावाओ अस्थित्तं, तत्थ पुव्वि नाहियवाईण दिडीओ कहित्ता पच्छा अत्थित्तपक्खवाईणं दिट्ठीओ कहेइ एसा तइया ३ । सम्मावायं कहित्ता मिच्छावायं कहेइ सोवि श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४७
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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