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________________ भगवंतनी आज्ञानुं उल्लंघन करे छे, मर्यादानो लोप करे छे, मिथ्यात्वने सेवे छे अने पोताना संयमधर्मनी पण विराधना करे छे. निर्णीत करेला समय उपरान्त जो संथारो राखवामां आवे तो तेनी गवेषणादिकने कारणे सज्झायनो व्याक्षेप थाय, वळी संथारामां दीर्घकाळे जीवोत्पत्ति पण थाय अने तेने सम्यक् प्रकारे जोवे नहीं तो संजमविराधना थाय. कदाच जीवोत्पत्तिनी संभावना जाणी संथारो अर्पण करनार गृहस्थ कहे के ते मने पाछो सोंपजो, हुं बीजो आपीश तो पण ते बीजानी गवेषणादिकने कारणे स्वाध्यायमा स्खलना थाय, माटे शेष काळमां संथारो स्वीकारवो ज नही. जो स्वीकारे तो ऊपर जणावेल दोषापत्ति आवे. कदाच कोईने अज्ञानतामां तेQ कार्य थई गयुं होय तो तेने माटे शिक्षा जणावतां कहे छे के परिसाडी अझुसिर संथारो लावे तेने एक लघुमासनो दंड, परिसाडी झुसिर, एकांगिक संघातिम, एकांगिक असंघातिम अने अनेकांगिक-आ चार प्रकार पैकी कोई पण जातनो संथारो ग्रहण करे, बीजा पासे ग्रहण करावे तेमज ग्रहण करनारनी अनुमोदना करे तो तेने लघु चारमासी दंड (प्रायश्चित) आवे. आ बाबतमा प्रतिवादी तर्क उठावतां प्रश्न करे छे के–“तमे ऊपर जणावेल सूत्रमा तो पर्युषण पूर्वे ग्रहण करेल संथाराने पर्युषण पछी शेषकाळ राखवाथी दंड जणावेल छे अने तमे तो शेष काळमां लाववानो दंड जणावो छो तो ते केम घटी शके?" आ बाबतनो स्पष्ट जवाब आपतां सूत्रकार भगवंत कहे छे के–“ए सूत्र तो कारणने आश्रयीने कहेल छे. कोई साधु ग्लान होय, अणशन करवानो अभिलाषी होय अने भूमि शरदीवाळी होय तो तेवा कारणोने अंगे चोमासा उपरांत पण संथारो राखवो पडे तो पण पूर्वे ग्रहण करेल संथारो तो न ज राखवो, बीजो लाववो एम सूत्रनो भावार्थ छे. शेष काळमां पण संथारो लाववो एवो तेनो अर्थ ज नथी. आ प्रमाणे पीठ, फलक अने संथारादिकनुं जे स्वरूप का ते प्रमाणे वर्तन न करे तेने उन्मार्गगामी जाणवा. (५) सचित्त अपकायनो विराधक पण उन्मार्गगामी जाणवो. (६) मूळ तथा उत्तरगुणनो विराधक-आ उपरांत मूल तथा उत्तरगुणनो विराधक होय तेने पण भ्रष्टाचारी आचार्य जाणवो. सर्वथकी प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहनो त्याग अने रात्रिभोजनविरमण ए छ मूळगुण छे अने पांच समिति, त्रण गुप्ति तथा स्नान न करवू, मुख तथा हस्तादि न धोवा, शरीरनी शोभा न करवी, वस्त्र धोवा तेमज रंगवा नही, बेतालीश दोष रहित गोचरी लाववी, गृहस्थ पासे काम न कराववं विगेर विगेरे उत्तरगुण छे. आ बन्ने प्रकारना गुणोथी जे रहित होय तेने उन्मार्गगामी जाणवा. (७) सामाचारीदूषक - पंचांगीमां वळी साधुओने रात्रि तेमज दिवसमां जे क्रिया करवानी कही छे, जे मर्यादा बांधी छे ते प्रमाणे न करे, आधीपाछी करे, ओछी-वधती करे ते सामाचारीना विराधक कहेवाय अने तेने पण उन्मार्गगामी जाणवा. (८) आलोयण नहीं लेनार-पोते जे पापवृत्ति करी होय अथवा तो निरंतर जे दोष लागता होय ते गुरु समक्ष प्रकट करी गुरु जे आलोयण-प्रायश्चित आपे ते स्वीकारी लेवू जोईए. प्रायश्चितने अंगे जे तपश्चर्यादि करणी करवानी कहे ते करवी जोईए, छतां पण ते प्रमाणे न करे तेने भ्रष्टाचारी श्रीगच्छाचार-पयन्ना-४२
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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