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________________ गाथार्थ - आचार्य महाराज गच्छने माटे मेढीभूत, अवलंबनस्वरूप, स्तंभनी माफक आधारभूत, नेत्र-दृष्टिनी जेवा उपयोगी अने छिद्र वगरना श्रेष्ठ जहाजनी जेवा होय छे. जे गच्छमां आवा आचार्य होय ते सुगच्छ जाणवो माटे आचार्यनी परीक्षा उपर्युक्त साधनो द्वारा करवी.८ विवेचन-सुगुप्तिमान उत्तम आचार्यनां लक्षण बतावतां शास्त्रकारमहाराजा जणावे छे के ते मेढी जेवा होय. मेढी एटले काष्ठ खेतरमां धान्य पाकी गया पछी तेना खळा करवामां आवे छे. ते खळामां डुंडाओमा रहेला धान्यने तेनाथी छूटा पाडवा माटे वृषभो पासे कचराववामां आवे छे. आ समये खळानी मध्यमां एक काष्ठ ऊभुं करवामां आवे छे अने तेनी साथे वृषभोनी राश बांधी लेवामां आवे छे एटले वृषभो आघा-पाछा जई शकता नथी अने पोतानुं कार्य करे छे. आ ऊभुं करेल काष्ठ ते मेढी कहेवाय छे. जेवी रीते आ काष्ठथी वृषभो मर्यादामां ज चाले, आघा-पाछा थई न शके तेम आचार्यनी आज्ञारूप राशथी बंधाएल शिष्यसमुदाय पोतपोताना आचारमां-मर्यादामां ज मग्न रहे छे. आचार्यनो बीजो गुण अवलंबन छे. जेम कोई पुरुष खाडा विगेरेमां पडी जता होय तेने हस्तादिनुं अवलंबन आपवामां आवे तो तेनी रक्षा थाय छे अने पडतो बची जाय छे तेम आचार्य पण भवरूप गर्तामां पडी जतां गच्छने बचावे छे. तेमनो त्रीजो गुण छे स्तंभभूत. प्रासाद विगेरेने आधारभूत स्तंभो छे, ते न होय तो महेल, हवेली विगेरे मकानो टकी शके नहि तेम आचार्य पण गच्छना स्तंभरूप छे. तेमनी गेरहाजरीमां गच्छ टकी शके नहीं. वळी आचार्यने नेत्र समान कह्या तेनुं कारण ए छे के जेम दृष्टि जीवने शुभाशुभ बतावनार छे तेम गच्छने भावी शुभाशुभ दर्शावनार आचार्य छे. तेमने छेल्लुं विशेषण आप्युं छे श्रेष्ठ यान-जहाज. छिद्र विनानुं यान-नाव जेम समुद्रनो पार पमाडे छे तेम आचार्य संसाररूपी समुद्रथी पार पहोंचाडवाने शक्तिमान छे. आवा आचार्य जे गच्छमां होय ते सुगच्छ जाणवो अने तेवा गच्छमां वास करवो ते ज हितकारी छे. आ ग्रंथमां (१) आचार्यस्वरूपाधिकार, (२) साधुस्वरूपाधिकार अने (३) साध्वीस्वरूपाधिकार-ए प्रमाणे त्रण अधिकार आववाना छे. तेमां प्रथम आचार्याधिकार जणावे छे. सदाचारी आचार्य, लक्षण बताव्यु त्यारे शिष्य प्रश्न करतां पूछे छे के–“ उन्मार्गगामी आचार्यने केवी रीते जाणी शकाय? तेनां लक्षण क्या क्या छ ? " तेनो खुलासो जणावतां कहे छे के भयवं! केहि लिंगेहि सूरिं उम्मग्गपट्टियम् । वियाणिज्जा छउमत्थे, मुणी तं मे निसामय ।। ९ ।। [भगवन् ! कैलि., सूरिमुन्मार्गप्रस्थितम् । विजानीयात् छद्मस्थ:, मुने ! तन्मे निशामय ॥९] गाथार्थ - हे पूज्य ! ज्ञान-दर्शन रहित छास्थ जीव कया कया लक्षण-वडे सूरि-आचार्यने उन्मार्गगामी थयेला जाणी शके ते तमो मने संभळावो- कहो. ९ विवेचन-ऊपरनी आठमी गाथामां सन्मार्गगामी - सदाचारी आचार्यनां लक्षण जणाव्या तेनी साथे अर्थान्तरन्यासथी उन्मार्गगामी आचार्यनां लक्षणो पण जाणवा आवश्यक छे, कारण के त्यारे श्रीगच्छाचार-पयन्ना-३९
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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