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जीती लईश तेवी मारी धारणा धूळमां मळी छे. तेओ नयना ज्ञाता छे माटे बोलवामां तो पकडाशे नहिं माटे बीजी युक्ति करूं. तेमणे वेराग्यथी चारित्र-ग्रहण कर्यु छे माटे तेओ आत्माने एकलो मानता हशे अने तेना जवाबमां तेओ भूलथाप खाई जशे माटे तेवो ज प्रश्न करूं.' एम विचारी तेणे तेमने पूछ्यु के–“हे भगवन् ! तमे एक छो के बे? अनेक छो? अक्षय छो? अव्यय छो? अवट्ठिय छो? पूर्वे जेवा हता, अत्यारे जेवा छो अने भविष्यमां थशो तेवा छो?” शुक परिव्राजकना आवा प्रश्नथी थावच्चा अणगारने तेनी युक्ति अने मूर्खाई बने पर मनमां सहेज हास्य उत्पन्न थयुं खजुओ सूर्यनो पराभव करवा इच्छे ते केम बनी शके ? परंतु तेमणे गंभीर थईने जवाब आप्यो के–“हे महानुभाव ! हुं एक छु, बे पण छु, इत्यादि ते जे प्रश्नो पूछया ते सर्व छं. तेनुं कारण सांभळ-द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए जीव द्रव्य एकलुं छे तेथी हुं एक छु. ज्ञान अने दर्शन ए बे जीवद्रव्यथी जुदा नथी तेथी हु बे पण छु. जीवद्रव्य-असंख्यातप्रदेशी छे तेथी हुं अनेक छु. कोई पण प्रदेशनो क्षय थतो नथी तेथी हुं अक्षय छु. कोई प्रदेशनो विनाश नथी माटे अविनाशी छु, जीव कोई पण दिवसे नूतन-नवो थतो नथी तेथी शाश्वत-नित्य छु. भूतकाळमां अनेक उपयोग कर्या छे, वर्तमानमां करी रह्यो छु अने भविष्यमां थशे तेनी अपेक्षाए तेवो पण छु." आ प्रमाणे थावच्चा अणगारना युक्तियुक्त अने अकाट्य प्रमाणो सांभळी शुक परिव्राजक तो विचारमा ज गरकाव बनी गयो. तेणे कदी आवो उपदेश के ज्ञान जाण्युं ज न हतुं. तेमने पोताना अत्यार सुधीना मिथ्या मार्ग माटे खेद उपज्यो अने मुनिवरने विज्ञप्ति करी के–“हे भगवन् ! मने केवलीभाषित धर्म संभळावो के जेथी मारुं अज्ञानांधकार नाश पामे.” थावच्चा अणगारे तेने प्रतिबोध पामेलो जाणी सर्वज्ञप्ररूपित सिद्धांतों अने तेनुं स्वरूप संक्षिप्तमा जणाव्यु जेथी शुक परिव्राजकने जैनी दीक्षानो शुद्ध मार्ग ग्रहण करवानी इच्छा थई. तेणे तरत ज पोतानी जिज्ञासा मुनिवरने जणावी. मुनिश्रीए का के–“जेवी तमारी इच्छा. शुभ कार्यमां विलंब न करवो.” त्यारबाद पोताना गेरु जेवा रंगवाळा वस्त्रनो त्याग करी, केशनो लोच करी पोताना हजार शिष्यो साथे दीक्षा ग्रहण करी. शुक परिव्राजक शास्त्राभ्यास करतां चौद पूर्वना ज्ञाता थया एटले थावच्चा अणगारे तेमने तेमनी साथे दीक्षा लीधेला हजार शिष्योना आचार्य तरीके स्थाप्या. बाद पोतानो अंतिम समय नजीक जाणी थावच्चा अणगार श्रीसिद्धाचळ पर्वते आव्या अने त्यां एक मासर्नु अणशण कर्यु, अणशणमां ज केवळज्ञान प्राप्त करी तेओ छेवटे मोक्षलक्ष्मीना भोक्ता बन्या.
आ बाजु शुक मुनि विचरता विचरता शेलगपुरना सुभूमिभाग उद्यानमा रह्या तेवामां शेलक राजा अने नगरना लोको तेमने वंदनार्थे आव्या. शुक मुनिनी वैराग्यवाहिनी देशना सांभळी श्रावकधर्मी बनेल शेलक राजा विशेष वैराग्यवंत बन्यो अने तेणे शुक मुनिने का के–“मने संसार प्रत्ये उद्वेग उपज्यो छे तेथी मने दीक्षा लेवानी भावना उद्भवी छे.” मुनिराजे का “ सारा कार्यमां विलंब न करवो.” त्यारे शेलक राजाए कह्यं के—“मारे मारा पांचसो प्रधानोने पूछयूँ जोईए माटे तेनी रजा लई आईं त्यां सुधी आप स्थिरता करो.” आ प्रमाणे कही राजमंदिरे आवी तात्कालिक सर्व प्रधानोने बोलावी का के–“हे प्रधानो ! मने शुकाचार्यनो उपदेश रुच्यो छे अने संसारनी
श्रीगच्छाचार-पयन्ना- ३१