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________________ इत्यादि जाहेर न करे अथवा मातादिकनी गुह्य बात होय तो ते मर्म प्रकाशित न करे. आवी वचनगुप्तिवाळा गच्छने ज हे गौतम ! तुं साचो गच्छ जाणजे. विवेचन-गृहस्थ वर्गमां पण कहेवत प्रचलित छे के–“कलहकंकासथी तो गोळाना पाणी पण सुकाय छे.” अर्थात् क्लेशथी सुखसंपत्ति नाश पामी जाय छे. जेओ संसारनो त्याग करी संयमना मार्गे चढ्या छे तेओए तो कदापि पण क्लेश-कलह न करवो जोईए. क्लेशथी कर्मबंध थाय छे, आर्त के रौद्र ध्यान थाय छे अने आवी रीते कलह करतां ईतरजनो जुए त्यारे शासननी अपभ्राजना थाय. क्रोधादिक कषायो छूपा चोर छे. ते क्यारे आपणा मनमां प्रवेश करी कब्जो करी वाळे छे तेनो आपणने ख्याल रहेतो नथी, माटे क्रोधादिक करवानां प्रसंगे उपस्थित थाय त्यारे अत्यंत सावचेत रहेQ. हे गौतम ! आवा प्रसंगे जेओ आत्मभान भूली जेम फावे तेम बोले छे ते गच्छने हुं सारो गच्छ कहेतो नथी. शास्त्राभ्यास करवाने अंगे तो गमे ते शंकादिनी पृच्छा करवा माटे साधु समीपे जq पडे त्यारे पण मुख्य साध्वीने आगळ करीने, तेमनी पाछळ रहीने साध्वीए पृच्छा करवी उचित छे. एकाकी साधु पासे जवु कल्पतुं नथी. साधु साथे वातचीत करवामां पण मृदु अने मिष्ट भाषा वापरवी जोईए. बोलवामां पण विवेक राखवो. विवेक ए मूंगु वशीकरण छे. विवेकथी सघळा कार्य सिद्ध थाय छे. श्रीसुक्तमुक्तावलीमां विवेक संबंधे का छे के हृदयधर विवेके प्राणी जो दीप बासे, सकळ भवतणो तो मोह-अंधार नाशे परम धरम वस्तू तत्त्व प्रत्यक्ष भासे, करम भरम पतंगा स्वांग तेता विनाशे। विकळ नर कहीजे ते विवेके विहीना, सकळ गुण भर्या ते जे विवेके विलीना। जिम सुमति पुरोधा भूमिगेहे वसंते, युगति जुगति कीधी जे विवेके उगते ।। गच्छमां साध्वीओए परस्पर कौटुंबिक संबंध पण न दर्शाववो; कारण के तेथी वचनगुप्तिनो भंग थाय छे. श्री दशवैकालिक सूत्रमा का छे के-“अज्जिए पज्जिए वा वि, अम्मो माउसिअ त्ति अपि । उस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए नत्तुणिइत्ति अ॥१।। अज्जए पज्जए वा वि, बप्पो चुल्लपिउत्ते अमाउला भाउणिज्जत्ति, पुत्ता नत्तुणिइत्ति अ॥२॥" हे माता, हे दादी, हे भाणेज, हे पुत्रो, हे बहेन, हे काकी, हे भार्या, हे मामी इत्यादि सांसारिक संबंध सूचवतां शब्दो साधुए या साध्वीए बोलवा नहीं. हुं अमुकनी माता छु, हुं अमुकनी पुत्री छु, अमुकनी स्त्री छु. विगेरे संबंध दर्शावतां वाक्यो पण न बोलवा. वळी मातादिकनी गुप्त वात होय तो तेनो प्रकाश न करवो. जेम बने तेम वचनगुप्तिनुं यथार्थ पालन करनार गच्छने हे गौतम ! हुं गच्छ कहुं छु. हवे जिनोक्त मार्गर्नु उल्लंघन करनार साध्वीने शुं प्राप्त थाय ते दर्शावे छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- २९९
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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