SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेना परिचयनी, तेनी साथे भोगविलास माणवानी अभिलाषा उत्पन्न थाय छे अने तेना परिणामे मनुष्य जन्म हारी जवाय छे. संगीत अने विविध वाजित्रना ध्वनिथी पण आसक्ति वृद्धिंगत थाय छे. वीणावाद्यमां आसक्त थयेल मृग छेवटे पारधीनी जाळमां फसाई मृत्युनुं दुःख वहोरी ले छे. रूप-रूपवंती स्त्रीओना दर्शनथी अथवा मनोहर अने रमणीय पदार्थोंना अवलोकनथी तनमां विकार उपजे छे अने तेना परिणामे भोगविलासनी आशा उद्भवे छे. तेनी प्राप्ति माटे अहोनिश झंखना रहेवा साथे आरंभ-समारंभ करतो प्राणी प्रांते संसार - समुद्रमां रझळे छे. दीपकना रूप (प्रकाश) मां मुग्ध बनेल पतंगीयुं तेमां झंपलावीने पोताना प्राणने कुरबान करी नाखे छे. रस - मिठाई अथवा मिष्ट रसवाळां पदार्थोंने खावानी लोलुपताथी, जिह्वास्वादथी कोई प प्रकारना भक्ष्याभक्ष्यनुं भान रहेतुं नथी तेमज तेवी वस्तुनी प्राप्ति माटे असत्यादि पापस्थानकों पण सेवाय छे अने तेमां अहोनिश झंखना रहेती होवाथी धर्मकार्यमां न्यूनता आवी जाय छे. मांसनी पेशीने विषे आसक्त थतुं मत्स्य तेनी साथे लगाडेला लोढाना सळीयानी तीक्ष्ण अणीथी छेवटे मृत्युने आंधीन बने छे. गंध - सुगंधने विषे आसक्त थईने प्राणी तेवा प्रकारनी सुवास प्राप्त करवामां अनेक समारंभो करे छे अने तेमां ज लयलीन रहेवाथी धर्मकार्य पण तेने सूझतुं नथी. सहेज पण दुर्वासना-दुर्गंध तेने दुःखदायी थई पडे छे. तेनाथी परिषह सहन थई शकता नथी तेमज जीव चंचळ बनी जाय छे. भ्रमर गंध प्रत्येनी तीव्र आसक्तिने कारणे कमळमां बीडाई जाय छे अने छेवटे विनाश पामे छे. स्पर्श – स्त्री आदिकना सुकोमळ स्पर्शने कारणे मन व्यग्र बनतां कामोत्पत्ति थाय छे अने तेनी शांतिने अर्थे प्राणी अनेक प्रकारनां दुर्ध्यान करे छे. हिंसादिकमां प्रवृत्त थतां अचकातो नथी तेमज मां रक्त बनीने छेवटे प्राणोनी आहुति आपी दे छे. हस्ती एटलो बधो स्पर्शप्रेमी छे के कागळनी बनावेल कृत्रिम हाथणीने जोईने पण तेनी उत्कट काम इच्छा जोर करे छे, अने तेने झंखतो ते तेनी पाछळ अंध बनीने दोडे छे तेवामां तेने फसाववा माटे खोदेला खाडामां पडी बंधनमां जकडाय छे. आ प्रमाणे एक एक इंद्रियना वशवर्तीपणाथी जीवन निरर्थक बने छे तो पांचे इन्द्रियोनी आसक्तिवाळा मनुष्ये तो स्वयमेव पोतानी गतिनो तेमज स्थितिनो संपूर्ण विचार करी लेवो. खरेखर एक कविए यथार्थ ज कह्युं छे के - “कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्गा, मीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च । एकः प्रमादी स कथं न हन्यात्, यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥ २ ॥ * अर्थात् मृग, हस्ती, पतंगीयुं, भ्रमर अने मत्स्य एक- एक इंद्रियने विषे अतिशय गृद्धपणुं राखवाथी यमराजने आधीन बने छे तो पांचे इंद्रियोने आधीन बनीने जे प्रमादी जीवन व्यतीत करे छे ते केम जीवन-साफल्यता प्राप्त करी शके ? कषाय - कषायो चार छे-क्रोध, मान, माया अने लोभ. श्रीगच्छाचार- पयन्ना—- १६
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy