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________________ विगेरे आधाकर्मी उद्गम दोषोनुं नाम लेतां या स्पर्श थई जतां भय उपजतो होय तेम ज कल्प एटले पात्रा ने त्रेपमां-हस्तादिकने साफ करवामां सावधान, विनयवान, निश्चळ स्वभावी, हांसी-मश्करीथी विरमेल, विकथाथी दूर रहेनार, वगरविचार्यु नहीं करनार, गोचरी अर्थे परिभ्रमण करनार, विविध प्रकारना अभिग्रह तथा दुष्कर प्रायश्चित्त आचरनारा मुनिजनो होय छे ते इन्द्रोने पण आश्चर्ययुक्त करे छे. है गौतम! तथाप्रकारनागच्छनेज वास्तविक गच्छ जाणवो. विवेचन-साधु रात्रिए पोता पासे अशनादि राखी मूके ते संनिधि दोष कहेवाय. आ दोषना संबंधमां श्रीनिशीथसूत्रना अगियारमा उद्देशामां का छे के-“जे भिक्खू असणं वा पाणं वाखाइमं वा साइमं दिया पडिगाहेत्ता दिया भुंजइ १, जे भिक्खू असणं वा ४ दिया पडिगाहेत्ता राओ भुंजइ २, जे भिक्खू असणं वा ४ राओ पडिगाहेत्ता दिया भुंजइ ३, भिक्खू असणं वा ४ राओ पडिगाहेत्ता राओ भुजंइ ४। चउसु वि भंगेसु आणादिया य दोसा चउगुरुं च पच्छित्तं तवकालविसेसियं दिज्जति ।।" १ जे साधु-साध्वी अशनादिक चार आहार दिवसे ग्रहण करीने दिवसे खाय, २ दिवसे ग्रहण करीने रात्रे खाय, ३ रात्रे ग्रहण करीने दिवसे खाय अने ४ रात्रे ग्रहण करीने रात्रे खाय-आ चार भांगामा प्रथम भांगो शुद्ध छे अने त्रण रात्रिभोजनना दोषथी दूषित छे. आ प्रमाणे वर्तनारने जिनाज्ञाभंगनो दोष लागे, चारमासी गुरु प्रायश्चित्त लागे. वळी पण कहे छे के-“जे भिक्खू पारियासियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरंवा सिंगबेरचुण्णं वा बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं आहारेइ आहारन्तं वा साइज्जइ ।।" जे साधु-साध्वी रात्रिए राखेल आखी पीपर के पीपरनुं चूर्ण, आखा तीखा के तीखानुं चूर्ण, सूंठ अथवा सूंठनूं चूर्ण, जे देशमां नमक (मीठु) न होय ते देशमां खारो पकवे छे तेनुं लूण (मीठु) थाय छे ते, समुद्रमा उत्पन्न थनारुं लूण (सिंधव) विगेरे चीजो रात्रे राखीने बीजे दिवसे वापरे अगर तो वापरनारने सारो जाणे ते आज्ञाभंगने पात्र थाय श्रीबृहत्कल्पना पांचमां उद्देशामां पण का छे के दिवसे लावीने रात्रिए राखी मूकेलो आहार अंशमात्र कल्पी शके नहीं. फक्त अपवादरूपे व्याधिग्रस्तने कल्पी शके, परन्तु अन्यने तो सर्वथा निषेध ज जाणवो. नियुक्तिकार आ संबंधमां विशेष अजवाळु पाडतां कहे छ के-अशनादिक रात्रिए राखेला जोईने नूतन शिष्य तथा कोई श्रद्वावान् मिथ्यात्व पामे तेना पापभाजन साधु थाय. वळी उपहासनु कारण थाय. जेमके जुओ आ निष्परिग्रही साधु रात्रिए आहार राखी मूके छे पाणीना घडा भरी राखे छे, घृतादिकनो संग्रह करे छे अने पाछा कहे के अमे तो अपरिग्रही-संचय विनाना छीए.' वळी संयमविराधना तथा आत्मविराधना पण थाय. रात्रे आहार राखी मूकवाथी ओरणिकादि प्राणियोनी उत्पत्ति थाय, रोटली आदिकमा लाळिया जीवो उपजे, ऊंदरो तेना भक्षण माटे आवे, तेने वळी बिलाडी प्रमुख खाई जाय, वळी जळ राखी मूक्युं होय तो तेमां कीडियो डूबी मरी जाय-आ प्रमाणे पापना भागीदार बनवाथी संयमविराधना थाय. वळी रात्रिए आहारमा सर्प तथा ऊंदरो लाळ नाखी जाय-आवो झेरी आहार वापरवाथी आत्मघात पण थाय. आ प्रमाणे संनिधि दोषनो विचार करी तेनो त्याग ज करवो. हवे उद्देशकनुं स्वरूप दर्शावतां कहे छे के-तेना बे भेद छे. (१) ओघउद्देशिक अने (२) विभाग-उद्देशिक. पोताने अर्थे रसोई पकावती वखते कोई आवशे तेने आपवाने माटे कंईक श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१९५
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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