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________________ पामे छे. आ उपरांत मंगळ करवानो बीजो हेतु ए छे के - ग्रंथने मंगळरूप मानीने शिष्यवर्ग तेनुं अध्ययन करवा उद्यमशील थाय. त्रीजो लाभ ए पण छे के – शिष्टवर्गनी परंपरानुं अनुकरण पण सचवाय. आपणा पूर्वाचार्य महाराजाओ प्रथम मंगळ करीने ज ग्रंथ प्रारंभ करता, एटले अन्य वर्गे पण तेमनी प्रणालिकानुं अनुकरण करवुं ज जोईए- आ बधा हेतुओने लक्षमां राखीने ज ग्रंथकर्ता महापुरुष पोताना इष्टदेव श्रीमहावीर परमात्मा - अपरनाम श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार करवारूप मंगळ करे छे. वळी श्रोतागणनी ग्रंथ - श्रवण करवामां प्रवृत्ति थाय, तेमनी रुचि वृद्धि पामे तेमज शिष्टाचारनुं पालन थाय ते माटे अर्थसंबंध, नाम अने प्रयोजन ए त्रणे हेतुओं पण दर्शाववा जोईए. प्रस्तुत ग्रंथमां अमुक संबंध-वर्णन आवशे, ग्रंथनुं अमुक अभिधान छे अने ते ग्रंथ सांभळवाथी ज्ञानवृद्धि थवा साथै निर्जरा पण थशे एम श्रोतागणने जणाय तो ते वर्ग तेमां प्रवृत्ति करवा प्रयत्नशील बने. आटला समाधान पछी पण कोई वळी शंका करे के- अर्थसंबंधादि त्रण हेतुओनी आवश्यकता स्वीकारीए छीए पण मंगळ करवानुं शुं काम छे ? कारण के ज्ञानाध्ययन करवुं ते ज महामांगलिक छे तो पछी बीजुं मंगळ शा माटे करवुं ? आ शंकानो प्रत्युत्तर ए छे के श्रेय - कल्याणकारी कार्य हमेशां विघ्नव्याप्त होय छे. कह्यं पण छे के–'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' जे पापकार्यनी प्रवृत्ति करे तेने विघ्न शुं नडवानुं छे ? कारण के पापरूप कार्य ते ज विघ्नरूप छे, एटले विघ्नमां विघ्न कयुं नड़े ? आथी बराबर स्पष्ट थाय छे के श्रेयकार्यमा विघ्न न नड़े ते माटे मंगळ करवुं ज जोईए प्रस्तुत विषयमा शास्त्रश्रवण ए श्रेय-कल्याणकारी कार्य छे, कारण के तेथी स्वर्गादि संपत्ति यावत् शिवसुखनी प्राप्ति थाय छे. आ उपरांत ग्रंथकर्तानो ए पण आशय होय छे के - आ ग्रंथनुं रचनाकार्य निर्विघ्ने साद्यंत परिपूर्ण थाय, शरीर संबंधी व्याधिओ उपशमी जाय अने प्रफुल्ल चित्तथी ग्रथनी रचना करी सुखरूप पूर्णाहुति थाय. भाष्यकार पण आ संबंधमां जणावे छे के बहुविग्घाई सेयाई, तेण कयमंगलोवयारेहिं । सत्थे पट्टिअव्वं, विज्जाए महानिहीए व्व ॥ १ ॥ — उपरना विषयनी पुष्टि करतां भाष्यकार पण उपर्युक्त गाथामां कहे छे के - 'श्रेयकार्यमां घणा विघ्नो आवी पड़े छे, माटे मंगळ उपचार-मंगळ करीने पछी ज ग्रंथ रचवामां उद्यम करवो. जेम महानिधान तेमज महाविद्या वखते मंगळ करवामां आवे छे तेम आ शास्त्र संबंधमां पण समजी लेवुं.' महानिधानभंडारनुं स्थापन करवुं होय त्यारे गोळ प्रमुखनुं दान करवामां आवे छे तेमज विद्याभ्यास करती वखते पण मंगळ करवामां आवे छे, तेवी रीते ग्रंथरचनामां पण मंगळनुं अवलंबन लेवुं ज जोईए. आटला कथनथी समाधान न थतां प्रतिवादी पुन: शंका करे छे के - ग्रंथनी शरुआतमां मंगळ करीने ग्रंथगौरव ग्रंथविस्तार शा माटे करो छो ? जो विघ्ननी ज शांति करवी छे तो मनमां नमस्कार करवाथी अगर तो तपश्चर्यादिक करवाथी विघ्नोनुं उपशमन थई जशे आनो उत्तर एटलो ज के तमे श्रीगच्छाचार - पयन्ना २
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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