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________________ तथा 'शरीर धर्मायतन छे' ए हेतुने लक्षमां राखीने औषध अथवा भेषज आपीने शाता पमाडे. एक द्रव्यवाळु औषध कहेवाय अने जेमां अनेक द्रव्यो मिश्रित थयां होय ते भेषज कवाय अथवा बहारना उपयोगमां आवे ते औषध अने अंतरमां भोज्य वस्तु तरीके वपराय ते भेषज कहेवाय. ए बे तो मुख्य गणाव्या, परंतु तदुपरांत अनेक प्रकारे साधुओंने साता उपजे तेवा कार्यों करे. वळी 'महामुनिनी भक्ति करवाथी कर्मनी निर्जरा थशे' ए प्रमाणे अन्यने पण उपदेशी बीजा पासे पण औषधादि करावे अने पोते अनुमोदना करे. आवा प्रकारनुं अंतरंग भक्तिभावथी वात्सल्य करनार संविज्ञपक्षी जाणवो, परंतु आवी रीते पारकानुं वात्सल्य करनार थोडा ज होय छे ते दर्शावे छे भू अस्थि भविस्संति, केइ तेलुक्कनमिअकमजुअला । जेसिंपरहिअकरणिक्क- बद्धलक्खाण वोलिही कालो ॥ ३६ ॥ [ भूताः सन्ति भविष्यन्ति, केचित् त्रैल्योक्यनतक्रमयुगलाः । येषां परहितकरणैक-बद्धलक्षाणां व्यतिचक्राम कालः || ३६ ।।] गाथार्थ – स्वर्ग, मृत्यु अने पाताळवासी लोकोए जेमना चरणकमळने नमस्कार करेल छे एवा केटलाक श्रेष्ठ जीवो भूतकाळमां थई गया, वर्तमानकाळे विद्यमान छे अने भविष्यकाळमां थशे के जेओनो काळ (समय) मात्र अन्यनुं हित करवा मात्रना लक्षपूर्वक व्यतीत थाय छे. विवेचन- राधावेध साधवानी इच्छावाळानं एकमात्र लक्ष जेम ऊंचे फरती पूतळीना हलन-चलनमां ज मग्न होय छे, पोतानी आसपास एकत्र थयेल विशाळ सभासमूह प्रत्ये तेनुं दुर्लक्ष होय छे तेवी रीते अन्य प्राणिओना हितमां रक्त बनेला श्रेष्ठ साधुपुरुषोनुं मनमात्र परमार्थमां ज लयलीन होय छे. पोते दीक्षापर्यायमा मोटा होय छतां पण रत्नत्रयीनुं आराधन करवा उजमाळ बनेला अल्पपर्यायवाळा मुनिनी पण वैयावच्च निरभिमानपणे उत्साहपूर्वक करे छे, परंतु आवा नि:स्वार्थ भाववाळी अने परहिताभिलाषी व्यक्तिओ अल्प संख्यामां ज होय छे, केटलाक तो एवा साधुओ होय छे के जेनां नामस्मरणथी पण प्राणी दुःखने अनुभवे छे. ती आणागयकाले, केई होहिंति गोयमा ! सूरी । जेसिं नामग्गहणे वि, होइ नियमेण पच्छित्तम् ॥३७॥ 1 [ अतीतानागतकाले, केचिद् भविष्यन्ति गौतम ! सूरयः । येषां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन प्रायश्चित्तम् ॥३७॥] गाथार्थ हे गौतम् ! भूत, भविष्य अने वर्तमानकाळमां एवा केटलाक आचार्यपद नामधारक साधुओ होय छे के जेमना नामस्मरण मात्रथी प्रायश्चित्त लागे अर्थात् तेमनो परिचय करवाथी तो प्राप्त थती दुःखपरंपरानुं वर्णन शुं करवुं ? विवेचन - श्रीमहानिशीथसूत्रना पांचमा अध्ययनमां कह्य छे के – “इत्थं चायरियाणं, पणपण्णं होंति कोडिलक्खाओ । कोडिसहस्से कोडी-सए य तह एत्तिए चेव ॥ १ ।। सं श्रीगच्छाचार - पयन्ना — १३८
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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