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________________ करनार पासत्थो जाणवो. प्रसंगवशात् त्रणे पक्षनुं वर्णन करतां कहे छे के–“सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओ वि गुणकलिओ । ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुई ॥१॥ संविग्गपक्खियाणं, लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणा वि, जेण कम्म विसोहंति ॥२ ।। सुद्धं सुसाहुधम्मं, कहेइ निदइय निययमायारम् । सुतवस्सियाण पुरओ, होइ य सव्वोमराइणिओ ॥३॥ वंदइ न य वंदावइ किइकम्मं कुणइ कारवे नेव । अत्तट्ठा न वि दिक्खइ, देइ सुसाहूण बोहेउं ॥४॥ओसण्णो अत्तट्ठा, परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो। तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डुइ सयं च ।।५ ।। सावज्जजोगपरिवज्जणाउ सव्वुत्तमोजई धम्मो । बीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खमहो ॥६॥ सेसा मिच्छट्ठिी, गिहिलिंगकुलिंगदव्वलिंगेहिं । जह तिन्नि उ मुक्खपहा, संसारपहा तहा तिन्नि ॥७॥" शुद्ध चारित्रनो धारक साधु, गुणवान् श्रावक अने कर्मना उदयथी चरणसित्तरी के करणसित्तरी पाळवामां शिथिल थयेल परंतु श्रद्धायुक्त शुद्ध प्ररूपणा करनार संविज्ञपाक्षिक शोभे छे. (१) संविज्ञापाक्षिक लक्षण संक्षेपथी आ प्रमाणे का छे के–जे चरण अने करणसित्तरीथी पतित थवा छतां शुद्ध मार्गनो उपदेश करवाथी कर्मक्षय करी रह्या छे.(२) शुद्ध धर्मनो उपदेश आपी पोतानी निंदा करतां कहे के–'हुँ आचरूं छु ते तो मिथ्या मार्ग छे, शुद्ध साधुधर्म माराथी पाळी शकातो नथी.' (३) वळी पोते न वंदावे परंतु शुद्ध साधुने पोते वांदे तेमज स्वउपदेशथी कोई प्रतिबोध पामी दीक्षानो अभिलाषी थाय तो स्वयं दीक्षा न आपे पण शुद्ध साधुओने सोंपे (४) कारण के जो ते पोते पोताना स्वार्थने अंगे अन्यने प्रतिबोध आपी दीक्षा आपे तो ते संविज्ञपाक्षिक तेने संसाररूपी महागर्तामां नाखे छे अने स्वयं पण संसारसागरमां अनेक वार बूडे छे. (५) सर्व पापकारी कार्यना निषेधरूप १ यतिधर्म सौथी उत्तम छे. २ गृहस्थनो धर्म अने ३ संवेगपक्षनो मार्ग ए त्रण मोक्षमार्ग जणावेल छे. (६) आ त्रण मार्गथी विपरीत १ गृहस्थलिंगी, २ चरकादि कुलिंगी अने ३ पासत्थादिक द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि छ, संसारमा परिभ्रमण करावनारा छे. (७) छेल्ला सातमा श्लोकना अर्थ संबंधी शंका करतां पूछे छे के–'गृहस्थलिंगी अने कुलिंगी तो संसारमा भमाडे ते तो ठीक परंतु पासत्थो तो भगवंतनो भेख धारण करनार छे ते केम संसार वधारे?" तेनो जवाब आपतां कहे छे के–“संसारसागरमिणं, परिब्भमंतेहिं सव्वजीवहिं। गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दब्बलिंगाइं ॥८॥" संसारसागरमां परिभ्रमण करतां सर्व जीवोए (मनुष्य भव पामेला जीवो, अव्यवहारी जीवो नहीं) अनंती वार द्रव्यलिंगो धारण कर्या अने मूकी पण दीधा; परंतु ज्यां सुधी सम्यक्त्वरूपी जहाज प्राप्त न थयुं त्यां सुधी जीवोनो उद्धार थाय नहीं एटले पासत्थानो मार्ग ए संसारमार्ग छे, मोक्षनो मार्ग नथी. शंका-मोक्षना त्रण अने संसारना त्रण एम छ मार्ग तमे कह्या, परंतु जे प्राणि साधुपणे घणा काळ सुधी विचर्या बाद कर्मना वशवर्तीपणाथी शिथिल थईने पासत्थापणे रहे छे तेने कया पक्षमां गणवा? उत्तर-“सारणचइया जे गच्छनिग्गया य विहरंति पासत्था। जिणवयणबाहिरा विय, ते उपमाणं न कायव्वा ॥९॥" मार्ग, उल्लंघन करीने जे पासत्थापणे विचरे छे ते जिनमार्गथी भ्रष्ट थयेला जाणवा, तेमनुं कोई पण वचन प्रमाणभूत न मानवं. आ संबंधमां दृष्टांत आपतां कहे छे के-किल्लो, मंदिर विगेरे अनेक श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१३३
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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