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________________ छे-आ प्रमाणे समकिती अने सम्यक्त्वनो अभेद दर्शाव्यो. २. निष्कांक्षित-अन्य मतनी वांछा रहित. वांछा-कांक्षा बे प्रकारनी छे-(१) देशकांक्षा अने (२) सर्वकांक्षा. देशकांक्षा एटले बुद्धधर्म पण सारो जणाय छे; कारण के तेमां पण दयाधर्मर्नु प्ररूपण करवामां आव्यु छे-आ प्रमाणेनी इच्छा ते देशकांक्षा. सर्वकांक्षा एटले वेदधर्म, शिवधर्म, बुद्धधर्म इत्यादि सर्व धर्मो सारा छे कारण के बधा धर्ममां मोक्षमार्ग कह्यो छे-आ सर्वकांक्षा जाणवी. आ बंने प्रकारनी कांक्षा रहित वर्तन राखवू. वळी विचारवू के-केवळी भगवंतना मार्ग (जैनधर्म) सिवाय कोई बीजा मतमां मोक्ष नथी ज. पंदर प्रकारे जे सिद्ध थया छे ते सर्व समभावभावित आत्मा थईने मुक्तिस्थानमा विराज्या छे अने तेवा समभावभावित आत्माए उपदेशेलो धर्म ते फक्त जैनधर्म ज छे माटे ते सिवायना अन्य सर्वकोई धर्मों मिथ्यात्वी मार्ग छे. ३. निर्विचिकित्सा- धर्मफळना संदेह रहित, तथा साधु - साध्वीना मलिन गावनी दुगंच्छा न करनार. प्रतिक्रमण, पडिलेहणादिक धार्मिक अनुष्ठान करूं छु. परंतु ते क्रिया कठिन छे अने तेनुं शुं फळ प्राप्त थशे? फळ प्राप्त थशे के नहीं? कारण के परलोकथी आवीने कोई एम कहेतुं नथी के अमुक क्रियाना फळथी मने आवी शुभ गति प्राप्त थई. बीजा धर्ममां पण पाप करनारा लोको सुखी जणाय छे अने आपणे तो आवी कष्ट क्रिया करीए छीए छतां सुख भासतुं नथी. वळी आटला वर्षी सुधी आ पडिलेहण, प्रतिक्रमणादिक क्रियाओ करी छतां तेनुं कशुं फळ प्राप्त था जणा नथी-आ प्रमाणे फळनो संदेह कदापि न करवो. तेमज साध या साध्वीनी ‘आ तो स्नानादिक करता नथी तेथी मलिन गात्रवाळा छे, दंतधावन पण करता नथी तेथी तेमनु मुख दुर्गंधवाळु होय छे' आ प्रमाणे तेमनी दुर्गच्छा पण कदापि न करवी ते निर्विचिकित्सा. ४. अमूढदृष्टि-मिथ्यात्वीना अज्ञान तपस्यादिक कष्ट तथा चमत्कार देखी व्यामोहित न थनार. अन्य मतना कोई बाल तपस्वीने उग्र तपश्चर्या (अज्ञान कष्ट) करतो निहाळी तेना प्रत्ये आदरभाव न दाखवे तेमज तेवा कोई संन्यासी, बावा इत्यादिकना मंत्र-तंत्रना चमत्कार देखी व्यामोहित न थाय एटले के स्वधर्ममां ज स्थिर रहे. 'आ इतर धर्म पण सारो छे माटे आपणे तेनुं पण अनुकरण करीए. आ इतर धर्म प्रभाववाळो जणाय छे तो तात्कालिक फळनी अपेक्षाए ते धर्म- सेवन करवू सारुं छे.' एम पण न विचारे. जो ते प्रमाणे स्वधर्ममां स्थिर न रहे तो समकित चाल्युं जाय. अन्यधर्मी तपस्वीओनी तपस्या ए खरेखर समजणपूर्वकनी तपश्चर्या नथी, ते तो अज्ञान तप मात्र छे. तथा प्रकारना देहदमनपूर्वक जो वीतरागमार्ग- अनुकरण करे तो अज्ञान तपद्वारा थती सिद्धि करतां अनेकगणुं पुण्य उपार्जन करे. अज्ञान तप अने जयणापूर्वकना तप वच्चे मेरु अने सरसव जेटलुं अंतर छे. ५. उपबृंहक- सरखा धर्म पाळवावाळा साधर्मिक बंधुना गुणनी प्रशंसा करवी. कोई पण साधर्मिक बंधुए अष्टाह्निक महोत्सव कों होय, सारी तपश्चर्या करी होय, प्रतिष्ठादि महोत्सव आरंभ्यो होय, साधर्मिक वात्सल्य कर्यु होय, दीक्षामहोत्सव योज्यो होय- आवा आवा धार्मिक शुभ प्रसंगोए ते ते कृत्य करनारनी प्रशंसापूर्वक कहेवू के-“धन्य छे तमने. तमे तमारी संपत्तिनो आवा पुण्यकार्यमां सदुपयोग को. तमारा जेवा महानुभावथी.ज शासनशोभा वधे छे.' आ प्रमाणे गुणानुवाद करवाथी ते ते कृत्य करनारनी भावना वृद्धि पामे छे तथा हृदय प्रफुल्लित बने छे. श्रीगच्छाचार-पयन्ना- १०३
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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