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________________ लोक चिन्तन विशाल दृष्टि वाला साधक लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है। वह यह भी जानता है - ( काम - भोग में) आसक्त पुरुष संसार में (अथवा काम भोग के पीछे ) अनुपरिवर्तन - पुनः पुनः चक्कर काटता रहता है । लोक का अधो भाग अपने अशुभ कर्मों के कारण सतत घोर कष्टों आदि से पीड़ित है। साधक अधोगति के उन कारणों पर भी विचार करता है और उन्हें छोड़ता है । लोक के मध्य भाग में तिर्यंच व मनुष्य अपने अशुभ तथा शुभ कर्मों के कारण दुःख से त्रस्त हैं। साधक उन गतियों के कारण का भी विचार करता है । फिर उनका विसर्जन करता है । लोक के ऊर्ध्व भाग में देवता आदि निवास करते हैं। वे भी विषय-वासना में आसक्त हुए शोक आदि से पीड़ित होते हैं। साधक उस गति के कारणों पर विचार करता है । लोक में आत्मा ऊर्ध्व लोक से तिर्यक् लोक में आता है, वहाँ से अधोलोक में जाता है, पुनः तिर्यक् व ऊर्ध्व लोक में गमन करता है। इस प्रकार कर्मों के कारण सतत परिभ्रमण करता रहता है। इस प्रकार लोक दर्शन या लोक चिन्तन करने वाला मनुष्य, लोक परिभ्रमण से मुक्त हो जाता है ।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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