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________________ भूमिका पूर्वापर अविरोधमय, जिनवाणी साक्षात्। भव्य भाव आराधना, शिव-सुख की सौगात ।।२३।। ज्ञान-नीर वर्षा करे, बनकर जलद महान। प्रथम और चौबीसवीं, वाणी एक समान।।२४।। श्री गणधर की बुद्धि में, उतरा ज्ञान अमोल। भ्रान्ति और संशय मिटें, मन हो जाय अलोल ।।२५ । । अर्थरूप उपदेश जिन, गणधर रचते ग्रन्थ । जिनवाणी अब तक अहो! है यह विस्तृत पंथ ।।२६ । । गणधर रचना अंग की, करते पर-उपकार। श्री स्थविर अंग बाह्य, भाष्य ग्रन्थ उद्गार ।।२७।। अर्द्ध मागधी में कहें, श्री जिनवर उपदेश। सब जानें सब ही सुनें, रहे न कोई शेष।।२८ ।। जिनवाणी भव तारिणी, बोध बीज प्रकटाय। आदि-अन्त में सार इक, स्याद्वाद सुखदाय।।२९ ।। महिमा जैनागम अहो! विवेक हंस आसीन हो, श्रुत देवी प्रणमन्त । मुनि ‘सुशील' इस जगत् में, जिन आगम जयवन्त ।।३० ।। वाणी अनुपम बंधु यह, आगम में विस्तार। मुनि ‘सुशील' अनुभव कहे, कहता प्रकट पुकार ।।३१।। द्वादश अंगी वैद्य है, मोहादिक भव रोग। जन्म-मरण मिट जात हैं, मिटें कर्म के भोग।।३२ ।। श्री जिनागम अनुपम अहो! अक्षय ज्ञान निधान। मुनि 'सुशील' कर लो मनन, मननशील मुनि जान।।३३।। आप्त कथित वाणी अहो! गणधर गुम्फित बोल। अनुमोदन मुनि जन करें, जैनागम अनमोल ।।३४।। सूत्र मनन चिन्तन सतत, तथ्य प्राप्त हो नव्य। तत्व रत्न खोजत रहो, आगम सागर भव्य ।।३५ ।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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