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________________ * १४२ * बढ़े रात को शीत, खुले मण्डप में ठाडे । कहते 'सूरि सुशील' वीर समता में गाढ़े । । १ । । ।। छन्द दोहा ।। . मण्डप से बाहर चलें, टहलें क्षणभर तात । बढ़ता जाता शीत भी, ज्यों-ज्यों बढ़ती रात । । २ । । विन कपाट मण्डप रहें, आत्मध्यान में लीन । शीत - विजय - प्रभु वीर सी, पहले कभी सुनी न ।।३।। समापन मूलसूत्रम् - श्री आचारांगसूत्रम् एस विही अणुक्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिण्णं भगवया एवं रीयंति । । ३९ ।। पद्यमय भावानुवाद कहता हूँ ऐसा कि मैं, सुन जम्बू धर ध्यान । महर्षि कश्यप गोत्र के, महावीर मतिमान । । १ । । शीत -सहन की यह विधा, दुहराई बहुबार । अब उपसर्ग अनार्य भू, जहँ के नर अनुदार । । २ ।। मूलसूत्रम् - तीसरा उद्देशक उत्तम तितिक्षा साधना तफसे सीयफासे य तेउफासे य दंस-मसगे य । अहियास सया समिए फासाइं विरूवरूवाइं । । अह दुच्चरलाढमचारी वज्जभूमिं च सुव्भभूमिं च। पंतं सेज्जं सेविंसु आसणगाईं चेव पंताई । ।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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