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________________ * ९२ * श्री आचारांगसूत्रम् • प्रमाद निषेध. मूलसूत्रम् जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढों छंदा इह माणवा। पद्यमय भावानुवाद अपना-अपना होत है, सबका सुख-दुख जान। मानव त्याग प्रमाद को, कहते हैं भगवान।।१।। भिन्न-भिन्न मानव यहाँ, नाना भाव विचार । सुख-दुख भी बहुरूप ही, होते कर्माधार।।२।। .कर्म उदय. मूलसूत्रम्एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इइ उदाहु वीरे ते फासे पुट्ठो हियासए, से पुट्विपेयं पच्छापेयं, भेउरधम्मं विद्धंसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं, चयावच इयं विप्परिणामधम्म, पासह एयं रूवसंधि। पद्यमय भावानुवाद पाप कर्म आसक्त नहिं, तब भी संभव कष्ट। फरमाते प्रभु वीर हैं, समता हो तब इष्ट।।१।। निश्चित ही तन छूटता, घट-बढ़ होत जरूर । जानो देह-स्वभाव को, करना नहीं गरूर।।२।। धीर जनों ने यूँ कहा, समता से सह कष्ट। आगे-पीछे भोगना, कितनी बात स्पष्ट ।।३।। यह औदारिक देह है, हो विध्वंस विनष्ट। नहीं ध्रुव और नित्य यह, कभी न शाश्वत इष्ट।।४।। चय-अपचय से युक्त ये, विविध बने परिणाम। दृष्टिकर पूर्वोक्त पर, रे! रे! आत्माराम।।५।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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