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________________ श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना द्वितीय दशानी विगत । वर्जीने उत्तरगुणो-आधाकर्मी आहार विगेरेमां अतिक्रम-व्यतिक्रम-अतिचार-अनाचार सेवे तो अने मूल गुणमां त्रण सेवे त्यां सुधी शबली कहेवाय अने चोथ सेवे तो सर्वभङ्गी कहेवाय अर्थात् अचारित्रीओ गणाय. जो के मूल-ग्रंथकारे तो एकवीस शबलमां चतुर्थ व्रतनुं खंडन करनारने पण शबली कह्यो छे. जुओ बीजुं पद 'मेहुणं सेवमाणे सबले इति चिंतनीयम्' इति द्रव्यशबल भावशबल (१) ब्रह्मचारीओए हस्तकर्म-सृष्टिविरुद्ध कर्म करवुं ते शबल (२) तिर्यंचयोनि साथै संभोग औदारिक शरीरी साथ संभोग - वैक्रियशरीरी साथै संभोग करवो ते शबल (३) रात्रिभोजन करवुं (४) आधाकर्मी आहार वापरवो (५) राजपिंड ग्रहण करवो अने वापरवो (६) वेचातुं लावेल, अदलबदल करी लावेल, झुंटावी लावेल, बीजा मालीकोनी इच्छा विरुद्ध लावेल, तथा सामो लावेल आहारने जे वापरे (७) वारंवार पच्चक्खाण करेला क्षेत्रनुं लावीने वापरे (८) ६ महिनानी अंदर एक गणमांथी बीजा गणमां प्रवेश करे (९) एक मासमां त्रण उदक लेप करे अर्थात् त्रण वखत पाणीमां उतरे. (१०) मातृस्थान- मायाकपट आचरे (११) गृहस्थनो पिंड वापरे (१२) छकाय जीवोनी हिंसा करे (१३) आसक्तिए . करी मृषावाद बोले (१४) आसक्तिए करी अदत्तादान ग्रहण करे (१५) आंतरा रहित-सचित्त पृथ्वी पर संथारो करे, बेसवुं करे (१६) ए प्रमाणे स्निग्ध पृथ्वी सहित-रजवाली पृथ्वी सहित संथारो विगेरे करे (१७) आसक्तिए करी सचित शिला माटी- घुणा नामना लाकडाना - कीडावाला घर उपर जीववाला फलक उपर इंडा-प्राणी-बीज - लीलोत्तरी-खार उधई घर पंचवर्णी लीलफुल- झाकल-करोलीयानुं जाल विगेरे ज्यां होय तेवा स्थानमां रहेवं बेसवुं संथारो कायोत्सर्ग वगेरे करवो (१८) आसक्तिथी मूल कंद स्कंध छाल- कुंपलीयो -पत्र - फल-फूल - बीज वगेरेनुं भोजन करवुं (१९) एक वरसमां दश वखत सचित पाणीने अडे अथवा नदी उतरे (२०) एक वरसमां दश वखत मातृस्थान क्रोध, मान, माया लोभ विगेरे करे (२१) आसक्तिथी शीतल पाणीनो उपयोग करे, केवी रीते ? हाथवडे, मात्रकवडे, द्रव्यना भाजनवडे अशन-पान खादिम स्वादिम ग्रहण करीने वापरे . आ उपरोक्त एकवीश शबलस्थानोने सेवे तो मुनि वस्त्रनां द्रष्टान्ते देशमलिनसर्वमलिन थाय छे. इति द्वितीय अध्ययनम् । जा अध्ययनमां स्थविर भगवंतोए तेत्रीस आशातनाओ वर्णवी छे. तेने सेवनारा मुनिओ शबल बने छे. आशातनाओना श्रीनिर्युक्तिकार महाराजा VIsssse
SR No.022580
Book TitleDashashrut Skandh Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri, Abhaychandravijay
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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