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________________ अष्टम आचारप्रणिधि नामकम् अध्ययनम् "संबंध" पूर्व के अध्ययन में भाषा शुद्धि का वर्णन किया है। भाषा शुद्धि आचार पालक भव्यात्मा के लिए ही आत्मोपकारी है। आचारहीन व्यक्ति भाषा शुद्धि का उपयोग रखता है तो भी उसके लिए वह माया युक्त हो जाने से अशुभ कर्म बन्ध का कारण हो सकती है। भाषाशुद्धि आचार पालन युक्त ही उपयोगी है। अतः अष्टम अध्ययन में आचार की, साध्वाचार की प्ररूपणा श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी म. सा. करते हैं। "गुरु कथन " आयार - प्पणिहिं तं भे उदा लधुं, जहा हरिस्सामि, कायव्व आणुपुविं सुह भिक्खुणा | " जीव रक्षा" "पृथ्वीकाय रक्षा" श्री महावीर परमात्मा से प्राप्त आचार प्रणिधि नामक अध्ययन में श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं कि “मुझे जो आचार प्रणिधि प्राप्त हुई है वह मैं अनुक्रम से कहूंगा। सो तुम सुनो।" उस आचार निधि को प्राप्त कर, जानकर, मुनिओं को उस अनुसार पूर्ण रुप से क्रिया करना चाहिये । १ । " जीव" तण रुक्ख पुढवी - दग - अगणिमारुअ, तसा अ पाणा जीव त्ति, इई वृत्तं दो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, मूल से बीज तक तृण, वृक्ष और इन सब में जीव है। ऐसा श्री वर्धमान स्वामी ने कहा है । २ । तेसिं- अच्छण - जोएण, मणसा काय मे ॥ १ ॥ सबीयगा । महेसिणा ॥ २ ॥ इंद्रियादि त्रस प्राणी, जीव हैं होअव्वयं निच्चं वक्केणं, एवं हवइ इस कारण से भिक्षु को मन, वचन एवं काया से पृथ्वी आदि जीवों की रक्षा करनेवाला होना चाहिये। पृथ्वी आदि जीवों की रक्षा करनेवाला (अहिंसक रहनेवाला) ही संयमी, संयत होता है । ३ । सिआ । संजए ॥ ३ ॥ पुढवीं भित्तिं सिलं लेलुं, नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करण जो एण, संजए सुसमाहिए ॥ ४ ॥ सुविहित मुनि शुद्ध पृथ्वी, नदी किनारे की दिवार दरार, शिला और पत्थर के टुकड़े जो सचित्त हो उसका तीन करण तीन योग से छेदन, भेदन न करें, न कुरेदे । ४ ।, सुद्ध पुढवीए न निसीए, ससरक्खमि अ आसणे । पमज्जित्तु निसीइज्जा, जाइता जस्स उग्गहं ॥ ५ ॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९२
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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