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________________ तहेव मेहं वनहं न माणवं, न देव देवत्ति गिरं वइज्जा। समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज्ज वा बुट्ठ बलाहये ति॥५२॥ इसी प्रकार मेघ, आकाश और राजादि को देखकर यह देव है ऐसा न कहें पर यह मेघ उमड़ रहा है, उन्नत हो रहा है, वर्षा हुई है, ऐसा कहना। मेघ, आकाश, राजादि को देव कहने से मिथ्यात्व एवं लघुत्वादि दोष होते हैं।५२ अंतलिक्ख ति गं बूआ, गुज्झाणुचरिअ ति । रिद्धिमंतं नरं दिस्स रिद्धिमंत ति आलवे॥५३॥ आकाश को अंतरिक्ष, मेघ को गुह्यानुचरित (देव से सेवित) कहें। ये दो शब्द वर्षा के लिए कहना और ऋद्धि युक्त व्यक्ति को देखकर यह ऋद्धिमान् है ऐसा कहना। ५३। । "वाक्शद्धि अध्ययन का उपसंहार" तहेव सावज्जणुमोअणी गिरा,ओहारिणी जा य परोवचाइनी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हास माणो वि गिरं वइज्जा॥५४॥ विशेष में मुनि सावध कार्य को अनुमोदनीय, अवधारिणी(संदिग्ध के विषय में असंदिग्ध) निश्चयात्मक या संशयकारी, परउपघातकारी भाषा का प्रयोग न करें। क्रोध से, लोभ से, भय से, हास्य से एवं किसी की हंसी मजाक करते हुए नहीं बोलना। ऐसे बोलने से अशुभ कर्म का विपुल बंध होता है। सुवक्क सुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुई परिवज्जए सवा। मिअं अदुई, अणुवीइ भास ए, सवाण माझे लहइ पसंसर्ग॥५५॥ इस प्रकार मुनियों को उत्तम वाक्शुद्धि को ज्ञातकर दुष्ट सदोष भाषा नहीं बोलना चाहिए, पर मित भाषा, वह भी निर्दोषवाणी, विचारपूर्वक बोलना चाहिए। ऐसे बोलने से वह मुनि सत्पुरुषों में प्रशंसा पात्र का होता है। प्रशंसा प्राप्त करता है। भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिआ, तीसे अ दुडे परिवजए सया। छसु संजए सामणिए सया गए, वहज बुद्धे हिअ माणुलोयि॥५६॥ भाषा के दोष एवं गुणों को यथार्थ जानकर, दुष्ट भाषा का वर्जक, छज्जीव निकाय में संयमवान् और चारित्र पालन में उद्यमवंत ज्ञानी साधु सदोष भाषा का निरंतर त्याग करें एवं हितकारी,परिणाम में सुंदर एवं अनुलोमिक/अनुकुल/मधुर भाषा का प्रयोग करें। ... परिक्सा भासी सुसमाहि-इंदिर, बउकसाया-वगए अनिस्सिए। सनिपुणे पुतमलं पुरे कर्ड, आराहए लोगमिणं तहा परं॥५॥शि मित गुण, दोष की परीक्षा कर भाषक, इंद्रियों को वश में रखनेवाला, क्रोधादि चार कवाय पर नियंत्रण करनेवाला, द्रव्य भाव निश्रा रहित(ममत्व के बंधन से रहित) ऐसे महात्मा जन्मान्तर के पूर्वकृत पापमल को नष्ट कर वाणी संयम से वर्तमान एवं भावीलोक की आराधना करता है। श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि है माक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं कहता हूँ तीर्थकर गणेष आदि महर्षियों के कथनानुसार कहता है। "सुवाक्य शुद्धि नामक सप्तम अध्ययन समात" श्री दशवकालिक सूत्रम् /९०
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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