SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमोहदी, तप, संयम, ऋजुतादि गुण में रक्त मुनि, आत्मा को शुद्ध विशुद्ध करते हुए पूर्वसंचित कर्मों को खपाते हैं। नये अशुभ कर्मों का बंध नहीं करते। नित्य उपशांत, ममतारहित, परिग्रह रहित, परलोकोपकारिणी आत्मविद्या सहित, यशस्वी, शरद ऋतु के चंद्र सम निर्मल-भावमलरहित और स्व पर रक्षक उपर दर्शित आचार पालक मुनि मोक्ष में जाते हैं। अगर कर्मशेष रहे तो वे वैमानिक देव लोक में जाते है। ६८,६९। श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते है कि - हे मनक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं किन्तु तीर्थंकर गणधर आदि महर्षियों के उपदेश से कहता हूँ। "सुवाक्य शुद्धि अध्ययन उपयोगी शब्दार्थ" परिसंखाय जानकर पन्नवं बुद्धिमान सव्वसो सभी प्रकार से विणयं शुद्ध प्रयोग करना सीखे।१। सच्चा सत्य अवत्तव्वा न बोलने योग्य नाइन्ना अनाचीर्ण। २ अक्कसं अकर्कश समुप्पेह अच्छी प्रकार से विचार करके बोली हुई असंदिद्धं संदेह रहित।३। अटुं विषय अन्नं दूसरा नामेइ प्रतिकुल।४। वितहं सत्य तहामुत्तिं तथा मूर्ति, सत्य जैसा, पुट्ठो स्पर्शीत, स्पष्ट किं पूर्ण फिर क्या कहना? वो बोले।५। वक्खामो कहेंगे णे हमारा णं यह हमारा एसकालंमि भविष्यकाल में संपयाइअमढे वर्तमान, भूतकाल की बातें।६। पच्चुप्पणं वर्तमान जमढें जिस वस्तु के लिए अवमेवं यह इसी प्रकार।८। निहिसं कहे बोले।१०। फरुसा कठोर गुरूभूओवघाइणी अधिक जीवों का घात करने वाली।११। पंडगं नपुंसक तेणं चोर को।१२। उवहम्मइ दुःख उत्पन्न होना आयार भाव दोसन्नू आचार, भाव, दोष का जानकार।१३। होले मूर्ख गोल यार से जन्मा साणे श्वान वसुल छीनालज दुम्मो भिक्षुक दुहले दुर्भाग्य।१४। अज्जिो दादी पज्जिो परदादी माउसिउ मासी अन्नित्ति हे अन्ने हले-हलित्ति हले-अली पिउसिओ पितृश्वसा भायणिज्ज भाणजी धुओ पुत्री णत्तुणिअ पौत्री भट्टे हे भट्टे गोमिणि गोमिनी।१५,१६। नामधिज्जेण नाम लेकर णं इसको बूआ बुलावे इत्थीगुत्तेण स्त्री के गौत्र से जहारिहं यथायोग्य अभिगिज्ज देशकालानुसारी आलविज्ज एक बार लविज्ज बार-बार।१७। बप्पो पिता चुल्लपिउ चाचा। १८,१९। जाइत्ति जाति के आश्रय से। २० । पसुं पशु को सरीसवं सर्प-अजगर को धुले विस्तारवान् पमेइले अतिमेद युक्त वझे वध योग्य पइवे पकाने योग्य। २२। परिवूढ परिवृद्ध, बलवान उवचिअ उपचित देह युक्त संजाओ संजात, युवा पीणिजे पुष्ट महाकाय बड़े शरीर वाला।२३। दुज्जाओ दुहने योग्य, दम्मा दमन करने योग्य गोरहग वृषभ वाहिमां वहन योग्य रहजोग रथयोम्य । २४। जुवं गवित्ति युवानवृषभ धेणुं प्रसुता धेनु रसदय त्ति दुध देनेवाली रहस्से छोटा महल्लले बडा संवहणि धोरी। २५। गंतुं जाकर पव्वयाणि पवर्तों पर अलं योग्य पासाओ प्रासादों के दोणिणं द्रोण, जल कुंडी काष्ठ की। २६,२७। चंगबेरे काष्ठपात्र नंगले हल मइअ बीज बोने के बाद खेत को सम करने हेतु उपयोग में आने वाला कृषि का एक उपकरण। जंतलट्ठी यंत्र की लकड़ी, कोल्हू नाभि नाड़ी, पहिये का मध्य भाग, गंडिआ अहरन, एरण सिआ होगा।२८। जाणं रथ उवस्सो उपाश्रय में। २९ जाइमंता ऊँची जात के दीह दीर्घ वट्टा गोलाकार पयायसाला विस्तरित शाखायुक्त विडियां प्रति शाखायुक्त दरिसणित्ति देखने योग्य। ३०,३१। पायखज्जाइं पकाकर खाने योग्य वेलोइयाइं अत्यंत पके हुए टालाई कोमल वेहिमाई दो भाग करने योग्य। ३२। असंथडा असमर्थ __ श्री दशवैकालिक सूत्रम् /८०
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy