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________________ आहार कैसे करें? अह कोई न इच्छिज्जा, तओ |जिज एकओ। आलोए भायणे साहू, जयं अपरिसाडियं॥१६॥ तित्तगं व कडु व कसायं, अंबिलं व महुरंलवणं वा। एअलध्दमन्नत्थ-पउत्तं, महुघयं व अॅजिज संजए॥९७॥ अरसं विरसं व वि सूइ वा असूइ। उल्लं वा जइ वा सुक्कं, मंथु कुम्मास भोअणं॥१८॥ उप्पण्णं नाइहीलिजा, अयं वा बहु फासुअं। मुहालध्दं मुहाजीवी भुंजिजा दोस वजि॥१९॥ जब कोई मुनि भगवंत आहार ग्रहण न करे तो प्रकाश युक्त पात्र (चौड़े पात्र) में जयणा पूर्वक हाथ में से या मुंह में से कण न गिरे, इस प्रकार अकेला आहार करें। उस समय वह आहार कटु हो, तीक्त हो, कषायला हो, खट्टा हो, मधुर हो, खारा हो तो भी देह निर्वाहार्थ मोक्ष साधनार्थ आहार मुझे मिला है ऐसा जानकर उस आहार को मधुर घृत युक्त मानकर या घृत जैसा प्रवाही पदार्थ शीघ्र ले लिया जाता है, उसी प्रकार आहार के स्वाद की ओर लक्ष न देकर, बाई दायी दाढों में संचालन किये बिना, पेट में डाल देना चाहिए। वह आहार संस्कार से रहित हो, या पूर्वकाल का विरस हो, सब्जी सहित हो या सब्जी रहित हो, सब्जी अल्प या अधिक हो, तुरंत का बना हुआ हो या शुष्क खाखरे आदि हो, बोर का भुक्का हो, उड़द के बाकुले हो, परिपूर्ण हो या अल्प हो और वह असार हो तो भी आगमोक्त विधि अनुसार प्राप्त निर्दोष आहार की निंदा न करनी। गृहस्थ /दाता का कोई भी कार्य किये बिना (मंत्र तंत्र औषधादि से उपकार किये बिना) प्राप्त किया हुआ है एवं स्वयं की जाति कुल शिल्प आदि बताकर निदान रहित मुधाजीवी की तरह से प्राप्त किया है अत: आगमोक्त साधु को संयोजनादि पांच दोष का आसेवन किये बिना आहार करना चाहिये॥९६ से ९९॥ दुर्लभ कौन हैं? दुल्लहाउ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोऽवि गच्छंति सुग्गइं॥१००॥त्ति बेमि॥ किसी भी प्रकार से प्रत्युपकार लेने की भावना से रहित नि:स्वार्थी दाता दुर्लभ है उसी प्रकार मंत्र तंत्रादि से चमत्कार बताए बिना, दाता पर भौतिक उपकार करने की भावना से रहित, स्वधर्मपालन में निमग्न नि:स्वार्थी ग्रहणकर्ता मुनि भी दुर्लभ है। मुधादायी निष्काम भाव से देने वाला, एवं एकमेव मोक्षार्थ जीवन यापन करनेवाला मुधाजीवी मुनि ये दोनों सुगति में जाते हैं। श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी मनक मुनि से कहते हैं कि ऐसा श्री महावीरस्वामीजी ने श्री सुधर्मास्वामी से कहा श्री सुधर्मास्वामी ने श्री जम्बुस्वामी से कहा वैसा मैं कहता हूँ। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५९
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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