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________________ इसको पढ़कर मनक ने अत्यल्प समय में ही स्वर्ग को प्राप्त किया था। इसीसे इस सूत्र की महत्ता का अनुमान भली प्रकार किया जा सकता है। इस सूत्र में दस अध्ययन हैं, उन्हीं का प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार है पहले अध्ययन में-धर्म प्रशंसा और माधुकरी वृत्ति का स्वरूप। दूसरे अध्ययन में-संयम में अधृति न रखने का और रहनेमि के दृष्टान्त से वान्तभोगों को छोड़ने का उपदेश। तीसरे अध्ययन में-अनाचारों को न आचरने का उपदेश, चौथे अध्ययन में-षड्जीवनिकाय की जयणा, रात्रिभोजनविरमण सहित पंचमहाव्रत पालन करने का और जीवदया से उत्तरोत्तर फल मिलने का उपदेश। पांचवें अध्ययन में-गोचरी जाने की विधि, भिक्षाग्रहण में कल्पाऽकल्प विभाग और सदोष आहार आदि के लेने का निषेध छट्टे अध्ययन में-राजा, प्रधान, कोतवाल, ब्राह्मण, क्षत्रिय, सेठ, साहुकार आदि के पूछने पर साध्वाचार की प्ररूपणा, अठारह स्थानों के सेवन से साधुत्व की भ्रष्टता और साध्वाचार पालन का फल सातवें अध्ययन में-सावध निर्वद्य भाषा का स्वरूप सावध भाषाओं के छोड़ने का उपदेश, निर्वद्य भाषा के आचरण का फल और वाक् शुद्धि रखने की आवश्यकता आठवें अध्ययन में-साधुओं का आचार विचार, षट्कायिक जीवों की रक्षा धर्म का उपाय कषायों को जीतने का तरीका, गुरु की आशातना न करने का उपदेश, निर्वद्य-भाषण और साध्वाचार पालन का फल नौवें अध्ययन में-अबहुश्रुत (न्यूनगुणवाले) आचार्य की भी आशातना न करने का उपदेश, और विनयसमाधि, श्रुतसमाधि स्थानों का स्वरुप दशवें अध्ययन में-तथारूप साधु का स्वरूप और भिक्षुभाव का फल दिखलाया गया है। इनके अलावा दशवैकालिक सूत्र में दो चूलिकाएँ भी हैं, जो कि भगवान् श्रीसीमन्धर स्वामी से उपलब्ध हुई है ऐसा टीकाकार और नियुक्तिकारों का कथन है। पहली चूलिका में-आत्मा को संयम में स्थिर रखने के लिये अठारह स्थानों से संसार की विचित्रता का वर्णन और साधु धर्म की उत्तमता का वर्णन किया गया है और दूसरी चूलिका में-आसक्ति रहित विहार का स्वरूप, अनियतवास रूप चर्या के गुण तथा साधुओं का उपदेश, विहार, काल, आदि दिखलाया गया है। इस सूत्र के ऊपर श्रीहरिभद्राचार्यकृत-शिष्यबोधिनी, नामक बड़ी टीका व अवचूरी, समयसुन्दरकृत-शब्दार्थवृत्ति नामक दीपिका आदि संस्कृत टीकाएँ भी बनी हुई है। संस्कृत टीकाओं के सिवाय अनेक टब्बा और भाषान्तर भी उपलब्ध है परंतु वे सभी प्राचीन अर्वाचीन गुजराती-भाषा में हैं, इसलिये वे गुजराती भाषा जाननेवाले साधु साध्वियों वे लिये ही उपयोगी हो सकते हैं, दूसरों के लिये नहीं। श्री दशवकालिक सूत्रम् / २
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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