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________________ का नाश करने के लिये केवलज्ञानी पुरुष मानसिक वाचिक और कायिक योगों को रोक कर शैलेशी (निष्प्रकम्प) अवस्था को धारण करता है। जया जोगे निरूभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ। तया कम्मं खवित्ताणं, सिध्दिं गच्छइ नीरओ॥२४॥ जया कम्मं खवित्ताणं, सिध्दिं गच्छद नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिध्दो हवइ सासओ॥२५॥ शब्दार्थ- जया जब जोगे मन-वचन-काया इन तीन योगों को निलंभित्ता रोक करके सेलेसिं शैलेशी अवस्था को पडिवजइ स्वीकार करता है तया तब कम्मं भवोपग्राही कर्मों को खवित्ताणं खपा करके नीरओ कर्मरज से रहित पुरुष सिद्धिं मोक्ष में गच्छड़ जाता है जया जब कम्मं कर्मों को खवित्ताणं खपा करके नीरओ कर्मरज से रहित पुरुष सिध्दिं मोक्ष में गच्छइ जाता है तया तब लोगमत्थयत्थो लोक के ऊपर स्थित सासओ सदा शाश्वत सिध्दो सिध्द हवइ होता है। योगों को रोक कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करने से मनुष्य, भवोपग्राही कर्मरज से रहित होकर, मोक्ष में विराजमान होता है और लोक के उपर रहा हुआ सदा शाश्वत सिध्द बन जाता "सुगति दुर्लभ" सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहोअस्स, दुल्लहा सुगइ तारिसगस्स॥२६॥ शब्दार्थ-सुहसायगस्स शब्दादि विषयों के सुख का स्वाद लेनेवाले सायाउलगस्स भावि-सुखों के लिये आकुल निगामसाइस्स खा पीकर रात दिन पडे रहनेवाले उच्छोलणापहोअस्स विना कारण हाथ, पैर, मुख, दांत आदि अंगोपांगो को धो कर साफ रखने वाले तारिसगस्स इस प्रकार जिज्ञासा लोपी समणस्स साधु को सुगइ सिध्दि गति दुल्लहा मिलना कठिन है। ___ जो साधु साध्वी शब्दादि विषयों के सुखास्वाद में लगे हुए हैं, भावि सुखों के वास्ते आकुल हो रहे हैं, खा-पीकर रात-दिन पड़े रहते या फिजूल बातें करके अपने अमूल्य समय को बरबाद कर रहे हैं और विना कारण शोभा के निमित्त हाथ-पैर आदि अंगोपांगों को धो कर साफ रखते हैं उनको सिध्दिगति मिलना अत्यन्त कठिन है। "सुगतिसुलभ तवोगुणप्पहाणस्स, उज्जुमइ खंति संजमरयस्स। परिसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स॥२७॥ शब्दार्थ-तवोगुणप्पहाणस्स छ?, अठ्ठम आदि तपस्याओं के गुण से श्रेष्ठ उज्जुमइ मोक्षमार्ग में बुध्दि को लगाने वाले खंतिसंजमरयस्स शांति और संयम क्रिया में रक्त परीसहे बाईस परिषहों को जिणंतस्स जीतने वाले तारिसगस्स इस प्रकार जिनाज्ञा के पालन करने वाले साधु को सुगइ सिध्दिगति सुलहा मिलना सहज है। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ४१
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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