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________________ श्री दशवैकालिक अध्ययन की द्वितीय चूलिका विविक्त चर्या उपयोगी शब्दार्थ : चूलिअं चूलिका को, पवक्खामि कहेंगे । १ । अणुसोअ-पट्ठिअ विषय प्रवाह के वेग में अनुकुल, पडिसोय विषय प्रवाह के विपरित प्रतिश्रोत, लद्धलक्खेणं लब्ध लक्ष्य, दायव्वो देना, होउकामेणं मुक्ति की इच्छावाले । २ । आसवो दीक्षारूप आश्रम, उत्तारो उतार । ३ । दट्ठवा जानने योग्य । ४ । अनिएअ अनियत, पइरिक्कया अकान्तवास । ५ । आइन्न आकीर्ण राजकुलादि, ओमाण अपमान, विवज्जणा वर्जन, ओसन्न प्राय: करके, दिट्ठहड देखकर लाया हुआ, जड़ज्जा यत्न करे । ६ । पयओ प्रयत्न करनेवाला । ६ । पडिन्नविज्जा प्रतिज्ञा करावे, कहिं कदाचित्, किसी भी । ८ । असज्जमाणो आसक्ति रहित । १० । संवच्छरं वर्षाऋतु, आणवेइ आज्ञा करे । ११ । पुव्वत प्रथम प्रहर, अवररत्त अंतिम प्रहर, सक्कणिज्जं शक्य हो वह । १२ । खलिअं प्रमाद, अणुपासमाणो विचारनेवाला, देखनेवाला। १३ । दुप्पउत्तं अयोग्य रीति से योग की प्रवृत्ति की हो, पडिसाहरिज्जा स्वस्थान पर लावे, आइन्नओ जातिवंत, खलीणं लगाम । १४ । पडिबुद्ध जीवी प्रमाद रहित । १५ । उवे प्राप्त करता है, पाता है । १६ । संबंध : प्रथम चूलिका में संयम मार्ग में शीथिल बनकर संयम छोड़ने के भाव करनेवाले आत्मा को स्थिर करने हेतु मार्गदर्शन दिया। अब इस चूलिका में संयम में स्थिर साधु की स्थिरता हेतु विहार संबंधी विवरण दर्शाया है। यहां विहार का अर्थ दैनिक चर्या है। दिनभर अर्थात् जीवन भर के आचार पालन स्वरूप को दर्शाया है। श्री दशवैकालिक द्वितीय चूलिका "विविक्त चर्या" चूलिअं तु पवक्खामि, सुअं केवलि - भासिअं । जं सुणित्तु सु पुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई ॥ १ ॥ मैं उस चूलिका की प्ररूपणा करूंगा जो चूलिका श्रुतज्ञान है केवल ज्ञानी भगवंतों ने कही हुई है, जिसे श्रवणकर पुण्यवान् आत्माओं को अचिन्त्य चिंतामणी रूप चारित्र धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है। १। अणुसोअ-पट्ठिअ - बहुजणंसि, पडिसोअमेव अप्पा, पडिसोअ-लद्ध-लक्खेणं । होउ - कामेणं ॥ २ ॥ दायव्वो नदी के पूर प्रवाह में काष्ठ के समान विषय; कुमार्ग द्रव्य, क्रिया के अनुकूल प्रवृत्तिशील अनेक लोग संसार रूप समुद्र की ओर गति कर रहे हैं। पर जो मुक्त होने की इच्छा वाला है, जिसे प्रति स्त्रोत की ओर गति करने का लक्ष्य प्राप्त हो गया है, जो विषय भोगों से विरक्त बन संयम की आराधना करना चाहता है उसे अपनी आत्मा को विषय, प्रवाह से विपरित मार्ग, संयम मार्ग का लक्ष्य रखकर स्वात्मा को प्रवृत्त करना चाहिये ॥ २ ॥ अणुसोअसुहो लोओ पडिसोओ आसवो सुविहिआणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उतारो ॥ ३ ॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२९
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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