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________________ "श्रुत समाधि" चउव्विहा खलु सुयसमाहि भवइ, तं जहा सुयं मे भविस्सइत्ति अज्झाईयव्वं भवइ १, एगग्ग चित्तो भविस्सामित्ति अज्झाईयव्वं भवई २, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाईयव्वं भवई ३, ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाईयव्वं भवई ४, चउत्थं पयं भवई, भवई य एत्थ सिलोगो ॥ ५ ॥ य, ठिओ य नाणमेगग्ग - चित्तो सुयाणि य अहिज्जित्ता, रओ श्रुत समाधि चार प्रकार से हैं। वह इस प्रकार :(१) मुझे श्रुतज्ञान की प्राप्ति होगी अतः अध्ययन करना चाहिये। (२) एकाग्र चित्त वाला बनूंगा अतः अध्ययन करना चाहिये । (३) आत्मा को शुद्ध धर्म में स्थापन करूंगा। अतः अध्ययन करना चाहिए। (४) शुद्ध धर्म में स्वयं रहकर दूसरों को शुद्ध धर्म में स्थापन करूंगा इस हेतु अध्ययन करना चाहिये । इस अर्थ को बताने वाला एक श्लोक कहा गया है। अध्ययन में निरंतर तत्पर रहने से ज्ञान की प्राप्ति होती हैं, उससे चित्त की स्थिरता रहती है, स्वयं स्थिर धर्मात्मा दूसरों को स्थिर करता है और अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को रहस्य युक्त जान कर श्रुत समाधि में रक्त बनता है | ५ | ६ | "तप समाधि" चउव्विा खलु तवसमाहि भवइ, तं जहा - नो इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा १, नो परलोगट्टयाए तव महिट्ठिजा २, नो कित्ति वण्ण सहसिलोगट्टयाए तव महिट्ठिज्जा ३, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तव महिट्ठिज्जा ४, चऊत्थं पयं भवइ य एत्थ सिलोगो ॥ ७ ॥ भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । विविह गुण- तवो-रए य निच्वं, तवसाधुणइ पुराण- पावगं, सया तप समाधि चार प्रकार से है वह इस प्रकार - ठावई परं । सुय- समाहिए ॥ ६ ॥ जुत्तो तव - समाहिए ॥ ८ ॥ (१) इह लोक में लब्धि आदि की प्राप्ति हेतु तप न करना । (२) परलोक में देवादि की सुख सामग्री की प्राप्ति हेतु तप न करना । (३) सर्व दिशा में व्यापक कीर्ति, एक दिशा में व्यापक (यश) वर्ण, अर्ध दिशा में व्यापक प्रशंसा वह शब्द एवं उसी स्थान में प्रशंसा वह श्लोक, अर्थात् कीर्ति, वर्ण, शब्द एवं श्लोक हेतु तप न करना । (४) किसी भी प्रकार की इच्छा के बिना एकमेव निर्जरार्थ तप करना। यह चतुर्थ पद है। इन्हीं अर्थों को बतानेवाला श्लोक कहा गया है। जो 'साधु विविध प्रकार के गुण युक्त तप धर्म में निरंतर आसक्त रहते हैं, इहलोकादि की आशंसा रहित और केवल एकमेव कर्म निर्जरार्थ तप धर्म का आचरण करता है, उस तप धर्म के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश करता है, ऐसा साधु नित्य तपसमाधि से युक्त है एवं नये कर्मों का बंध नहीं करता ॥ ७ ॥ ८ ॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११७
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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