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________________ के श्रमणधर्म के पालन से मुनि अनुत्तर-अर्थ जो केवल ज्ञान स्वरुप है। उसे प्राप्त करता है। ईहलोग-पारत्त-हिअं, जेणं . गच्छई सुग्गई। . बहुस्सुअं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थ विणिच्छयं॥४४॥ जिस श्रमण धर्म के पालन द्वारा इहलोक एवं परलोक का हित होता है। जिस से सुगति में जाया जाता है। उस धर्म के पालन में आवश्यक ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए बहुश्रुत, आगमज्ञ, गीतार्थ, आचार्य भगवंत की मुनि सेवा करें और अर्थ के विनिश्चय के लिए प्रश्न पूछे। ४४। "सद्गुरु के पास बैठने की विधि हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए। अल्लीण-गुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी॥४५॥ न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न य उरं समासिज्ज, चिट्ठिज्जा गुरुणतिए॥४६॥ जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर एवं शरीर को संयमित कर (न अति दूर, न अति निकट, आलीन, मन वाणी से संयत गुप्त) आलीन गुप्त होकर उपयोग पूर्वक गुरु के पास बैठे।४५।। गुरु के बराबर, आगे, पीछे न बैठे। गुरु के सामने जंघा पर जंघा चढाकर पैर पर पैर चढाकर, न बैठे। ४६ । (गुरु के सामने साढे तीन हाथ दूर मर्यादानुसार बैठना) "भाषा के प्रयोग में साध्वाचार पालन" । अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाइज्जा, मायामोस विवज्जए॥४७॥ ___ गुरु आदि के बिना पूछे न बोले, बीच में न बोले, गुरुआदि के पीछे उनके दोषों का कथन न करें, माया मृषावाद का त्याग करें। अप्पत्तिअं जेण सिआ, आसु कुप्पिज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं॥४८॥ अप्रीति उत्पादक क्रोधोत्पादक स्वपर अहितकारी एवं द्वय लोक विरुद्ध भाषा न बोलें। दिढे मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअं जि। अयं पिर-मणुव्विगं, भासं निसिर अत्तवं॥४९॥ आत्मार्थी मुनि दृष्टार्थ विषय, स्वयं ने देखे हुए पदार्थ संबंधी मित, शंका रहित, प्रतिपूर्ण, प्रगट, परिचित, वाचालता रहित (उंचे आवाज से नहीं) अनुद्विग्न, उद्वेग न करावे, ऐसी भाषा मुनि बोले।४९। आयार पन्नत्तिधर, दिट्टिवाय-महिज्जगं। वायविक्खलिअं नच्चा, न तं उवहसे मुणी॥५०॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १००
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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