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________________ मुनि रुक्ष वृत्ति युक्त, सुसंतुष्ट (संतोषी), अल्पेच्छु, अल्प इच्छा वाला, अल्प आहार वाला बनें और क्रोध विपाक के उपदेशक श्री वीतरागदेव के वचन को श्रवण करें, मुनि को क्रोध नहीं करना चाहिये।२५। कन्न सुक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए। दारुण कक्कसं फासं, कारण अहिआसए।॥२६॥ मुनि कर्णेन्द्रिय को सुखकारी वीणा, वाजिंत्र, रेडियो, लाउडस्पीकर आदि के शब्दों को श्रवण कर उसमें राग न करें (द्वेष भी न करें) एवं दारुण तथा कर्कश स्पर्श को काया से, स्पर्शेन्द्रिय से सहन न करें। २६। खुहं पिवासं दुस्सिज्जं, सी-उण्हं अरइ भयं। अहिआसे अवहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥२७॥ मुनि क्षुधा, प्यास, विषम भूमि, शीत, उष्ण ताप, अरति एवं भय को अदीन मन से, अव्यथित चित्त से सहन करें। क्योंकि भगवंत ने कहा है "देह में उत्पन्न होने वाले कष्टों को सम्यक प्रकार से सहन करना, महान फल दायक है। २७।" अत्थं गर्यमि आईच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए। . आहार-माईयं सव्वं, मणसा वि. न पत्थए॥२८॥ . सूर्यास्त के बाद से सूर्योदय के पूर्व तक चारों प्रकार के आहार में से कुछ भी खाने की इच्छा मन से भी न करें।२८। अतितिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे। . हविज्ज उअरे देते, थोवं लद्धं न खिंसए॥२९॥ मुनि दिन में आहार न मिले, निरस मिले तब प्रलाप न करे स्थिर, अल्पभाषी मिताहारी, और उदर का दमन करनेवाला हो। अल्प मिलने पर नगर या गांव की निन्दा करने वाला न हो। २९ । न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे। सुअलाभे न मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सि बुद्धिए॥३०॥ जिस प्रकार मुनि किसी का तिरस्कार न करें, उसी प्रकार स्वयं का उत्कर्ष भी न करें। श्रुत लाभ (कुल-बल-रुप) जाति-तप एवं विद्या का मद भी न करें।३०। से जाणमजाणं वा कटु आहम्मिों पर्य। संवरे - खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे॥३१॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९७
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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