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________________ १७३ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३६) लोगस्स एगदेसम्म ते सव्वे उ वियाहिया । , तो कालविभाग तु वाच्छ तेसिं चव्विह ।। १५९ ।। संत पप्प नाईया, अपज्जवसिया वि य । ठिs पहुच्च साईया, सपज्जवसिया विय ॥ ६० ॥ सागरावममेग तु, डक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्जेणं, दसवाससहस्सिया ॥ ६१ ॥ तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोच्चाए जहन्नेणं, एग तु सागरेश्वमं ॥ ६२ ॥ सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया | तइयाए जहन्नेणं, तिन्नेव सागरावमा || ६३ ॥ दस सागरावमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउत्थीए जहन्त्रेण, सत्तेव सागरावमा ॥ ६४ ॥ सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव सागरावमा ।। ६५ ।। वावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । छट्ठीए जहन्नेण सत्तरस सागरावमा ॥ ६६ ॥ तेत्तीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरेश्वमा ॥ ६७ ॥ जा चैव य आउठिई, नेरइयाण वियाहिया । सा तेसिं कायठिई, जहन्नुकोसिया भवे ॥ ६८ ॥ अण तकालमुक्कसं, अंतामुहुत्त जहन्नगं । विजढंमि सए काए, नेरइयाणं तु अंतर ॥ १६९ ॥
SR No.022569
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
PublisherPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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