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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३२). १४१ मायामुसं वडूढई लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंता, सहे अतित्तो दुहिओं अणिस्सो ॥ सदाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुह होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्ख; निब्वत्तई जस्स कएण दुक्ख । एमेव सदम्मि गओ पओस, उवेद दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुह विवागे । सहे विरत्तो मणुओ विसेोगो, एएण दुक्खोहपर परेण । न लिप्पए भवमज्झे बि सता, जलेण वा पोक्खरिणीपलास ॥ घाणस्स गंध' गहण वयंति, तं रागहेउ तु मणुन्नमाहु । तं दोषहेउ अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ।। ४८।। गंधस्स धाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंध गहणं वयंति । रागस्स हेउ समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु ॥४९।। गधेसु जो गिद्धिभुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से बिणास। रागाउरे ओसहगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ।।५०॥ जे यावि दासं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदासेण सएण जंतू, न किंचि गध अवरुज्झई से ।।५१।। एगतरत्ते रुइरंसि गधे, अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स संपोलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥५२॥ गंधाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्टे ॥५३॥