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________________ ९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४९ अतिरिक्त दूसरा कोई ध्यान का अधिकारी नहीं है। शारीरिक संघटन जितना कम होगा उतना ही मानसिक बल भी कम होगा और मानसिक बल जितना कम होगा उतनी ही चित्त की स्थिरता भी कम होगी। इसलिए कमजोर शारीरिक संघटन या अनुत्तम संहनन वाला किसी भी प्रशस्त विषय में जितनी एकाग्रता साध सकता है वह इतनी कम होती है कि ध्यान में उसकी गणना ही नहीं हो सकती। २. स्वरूप - सामान्यत: क्षण में एक क्षण में, दूसरे क्षण में, तीसरे- ऐसे अनेक विषयों का अवलम्बन करके ज्ञान धारा विभिन्न दिशाओं से बहती हुई हवा में स्थित दीपशिखा की तरह अस्थिर रहती है। ऐसी ज्ञानधारा-चिन्ता को विशेष प्रयत्न पूर्वक शेष विषयों से हटाकर किसी एक ही इष्ट विषय में स्थिर रखना अर्थात् ज्ञानधारा को अनेक विषय गामिनी न बनने देकर एक विषय गामिनी बना देना ही ध्यान है। ध्यान का यह स्वरूप असर्वज्ञ (छद्मस्थ) में ही सम्भव है। अतएव ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है। सर्वज्ञत्व प्राप्त होने के पश्चात् अर्थात् तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानों में भी ध्यान स्वीकार तो अवश्य किया गया है परन्तु उसका स्वरूप भिन्न है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त में जब मानसिक वाचिक तथा कायिक योग-व्यापार के निरोध का क्रम प्रारम्भ होता है तब स्थूलकायिक व्यापार के निरोध के बाद सूक्ष्म कायिक व्यापार के अस्तित्व के समय में सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्ल ध्यान माना जाता है और चौदहवें गुणस्थान की सम्पूर्ण अयोगीपन की दशा में शैलेशीकरण के समय में समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति नामक चौथा शुक्ल ध्यान माना जाता है। ये दोनों ध्यान उक्त दशाओं में चित्त व्यापार न होने से छद्मस्थ की तरह एकाग्रचिन्ता निरोध रूप तो है ही नही अत: उक्त दशाओं में ध्यान को घटाने के लिए सूत्रगत प्रसिद्ध अर्थ के उपरान्त 'ध्यान' शब्द का विशेष स्पष्ट किया गया है कि केवल कायिक स्थूल व्यापार के निरोध का प्रयत्न भी ध्यान है और आत्म प्रदेशों की निष्प्रकम्पता भी ध्यान है। इसके पश्चात् भी ध्यान के विषय में एक प्रश्न उठता है कि तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ से योगनिरोध का क्रम शुरु होता है तब तक की अवस्था में अर्थात् सर्वज्ञ हो जाने के बाद की स्थिति में क्या कोई ध्यान होता है? इस प्रश्न का उत्तर दो प्रकार से मिलता है- १. विहरमाण सर्वज्ञ की दशा में ध्यानान्तरिका कहकर उसमें अध्यानित्व ही मानकर कोई ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है। २. सर्वज्ञ दशा में मन, वचन और शरीर के व्यापार सम्बन्धी सुदृढ़ प्रयत्न को ही 'ध्यान' माना जाता है। ३. काल परिमाण - उपर्युक्त एक ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है बाद में उसे टिकाना कठिन है, अत: उसका काल परिमाण अन्तर्मुहुर्त है।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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