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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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१४. अलाभपरीसहे १५. तणफासपरीसहे १६. जल्लपरीषहे १७. सक्कारपुरक्कारपरीसहे १८. पण्णापरीसहे १९. अण्णापरीसहे २०. दंसण ( अंदसण) परीसहे २१. अक्कोसपरीसहे २२. . रोगपरीसहे
चाहिए।
समवायांग सूत्र स्थान - २२
उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन परीसहप्रविभक्ति का भी एतदर्थ विशद अध्ययन करना
* द्वाविंशतिः परीषहाः
यद्यप्यनेका: परीषहास्तथापि प्रमुखतया द्वाविंशतिः परिषहान् वर्णयितुं यतते
९।१
5 सूत्रम् -
क्षुत्पिपासा शीतोष्ण दंश मशक नाग्न्यारतिद्धीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचना लाभ रोगतृण-स्पर्शमलसत्कार- पुरस्कार प्रज्ञादर्शशनानि ॥ ८-८ ॥
सुबोधिका टीका
क्षुत्पिपासेति । धर्मसाधनायां विघ्नकारका द्वाविंशति परिषहाः प्रमुखाः सन्ति । ते चेत्थम्क्षुधा-पिपासा-शीतोष्णदंशमशक - नयारित द्धीच निशद्या शय्याक्रोश वध-याचनाऽलाभ रोगतृणस्पर्श- मल-सत्कार पुरस्कार - प्रज्ञानाऽदर्शन स्वरूपाः सन्ति । एते सर्वेऽपि रत्नत्रयरूपधर्मे बाधकाः सन्ति। एतावता रागद्वेष- परित्यागपूर्वककमेते परिषहाः परिषोढव्याः सन्ति ।
कर्मप्रकृतिभ्य एवैतेषामुदयः । पञ्चानां कर्मप्रकृतीनां स्वरूपं तावदित्थम् - ज्ञानावरणदर्शनावरण- चारित्रावरण- वेदनीय - मोहनीयान्तरायाणि ।
* सूत्रार्थ- परिषह बाईस प्रकार के है - क्षुधा (भूख) पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्य, अरतिद्धी चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।
* विवेचनामृतम् *
धर्मसाधना में विघ्न उपस्थिापित करने वाले अनन्त परिषह है किन्तु क्षुधा ( भूख ) पिपासा (प्यास) शीत, उष्ण, दंशमशक, नय, अरति, द्धी, चर्या निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा- अज्ञान - अदर्शन नाम बाईस परिषहों के रूप में ही समस्त परिषहों का समावेश होने की बात आचार्यों ने स्पष्टतया प्रस्तुत की है। बाईस परिषहों पर साधक को राग-द्वेष रहित होकर विजय प्राप्त करनी चाहिए।