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________________ [ ९। श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे संवर के दो प्रकार है- १. देशसंवर २. सर्वसंवर। देशसंवर - अर्थात् अमुक अल्प प्रकार के आस्रवों का अभाव। सर्वसंवर यानी सर्वप्रमकार के आश्रवों का अभाव। सर्वसंवर चौदहवें अयोगी गुण स्थान में होता है। उससे नीचे के सयोगी आदि गुण स्थानों में तो देशसंवर ही होता है। देशसंवर के बिना सर्वसंवर सधता नहीं है। अत: सर्वप्रथम देशसंवर के लिए प्रयत्न करना चाहिए। आस्रव के ४२ भेदों का वर्णन पूर्व में हो चुका है उनका जितने अंशो में प्रतिरोध सध जाता है उतना ही संवर' सफल होता है। आध्यात्म का विकास अर्थात गुणस्थानक का क्रम आस्रव का निरोध हो जायेगा वैसे-वैसे ही उत्तरोत्तर गुणस्थानक अर्थात् अध्यात्म विकास की अभिवृद्धि होती रहेगी। * सवंरपोयाः * 卐 सुत्रम् - स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रैः॥६-२॥ ____स गुप्तिसमितीति। गुप्तिश्च, समितिश्च, धर्मश्च, अनुप्रेक्षा च परीषहजयश्च(परीषहाणां जयः = परीषहजयः) चरित्रं चेतिद्वन्समासे गुप्ति-समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्राणितै:=गुप्ति-समिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहयजचारित्रैः। एभिर्गुप्त्यादिभि रूपायै स:=सवंर: सुद्रढ़ो भवति। * सूत्रार्थ - वह संवरसिद्धि, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय तथा चारित्र से होती है॥६-२॥ * विवेचनामृत * जीवात्मा, आस्रव का कर्ता है और अजीव आस्रव में सहायक है। अतएव शाद्धकारों ने द्रव्यसंवर एवं भावसवंर का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसमें योग प्रवृत्ति को रोकने के लिए (निरोध के लिए) आत्म परिणाम को 'द्रव्यसंवर' समझना चाहिए। द्रव्यसंवर के व्यवहार नय का स्वरूप 'तत्त्वार्थाधिगम' के सांतवे अध्याय में प्ररूपित है। कषाय परिणाम को रोकने के लिए आत्मा का मोहनीय कर्म सम्बन्ध में उपशम क्षयोपराम तथा क्षायिक भावरूप जो विशुद्ध परिणाम होता है, उसे 'भावसंवर' कहते है। उक्त दोनों द्रव्यसवंर व भावसंवर के अनेक भेद हो सकतें है तथापि शाद्धों में उसके १४
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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