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________________ १०।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९५ अनुसार ही होती है । जीव, स्वशरीर प्रमाणी स्वीकृत है किन्तु सिद्धावस्था में शरीर रहित स्थिति होने के कारण आत्मा की अवगहना त्रिभागहीन हो जाती है । सिद्धि (सिद्धावस्था) प्राप्ति के समय जो शरीर प्रमाण है उसका तृतीयांश कम करने पर जो अवगाहना प्रमाण शेष रहता है, वह सिद्धावस्था में विद्यमान रहता है-प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना का यही प्रमाण है। जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध सबसे कम, उससे उत्कृष्ट अवगाहना वाले संख्यातगुण, उससे यवमध्य सिद्ध असंख्यातगुण, उससे यवमध्य के उमर के सिद्ध असंख्यातगुण, उससे यवमध्य के अधस्तात् सिद्ध विशेषाधिक तथा उससे भी विशेषाधिक सर्वसिद्ध है - ऐसा जानना चाहिए। १०. अन्तर एक समय में जीवों के सिद्धि प्राप्त कर लेने के पश्चात् (तत् समयान्तर ) जो जीवसिद्धि प्राप्त करते है- उसे अनन्तर सिद्धि कहते हैं । इसका प्रमाण दो समय से आठ समय है। - निरन्तर आठ समय तक सबसे कम सिद्ध हुए हैं। उससे निरन्तर सात व छह समय तक बहुत सिद्ध हुए। यावत् निरन्तर दो समय तक संख्यातगुण सिद्ध हुए। षण्मासांतरित सिद्ध हुए सबसे कम, एक समयानतरित सिद्ध हुए- संख्यात गुण, यवमध्य के अंतरित सिद्ध हुए- असंख्यात गुण । उपरि यवमध्यांतरित विशेषाधिक और उससे सर्वसिद्ध विशेषाधिक हुए हैं- ऐसा जानना चाहिए। ११. संख्या - प्रत्येक समय में अधिक से अधिक या कम से कम कितने जीव सिद्धि प्राप्त करते हैं उसका परिमाण परिगणन को ही संख्या कहते हैं । एक समय में सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करने वाले जीव जघन्य प्रमाण की दृष्टि से एक तथा उत्कृष्ट प्रमाण से १०८ सिद्ध हुए हैं। उससे अल्प १०६ यावत् ५० सिद्ध हुए अनन्त गुण, ४९ से लेकर १५ सिद्ध हुए असंख्यात गुण तथा २४ से लेकर १ (एक) तक सिद्ध हुए संख्यात गुण - इतना ध्यातव्य है । १२. अल्पबहुत्व अल्प-बहुत्व-न्यूनाधिकता का द्योतक है। प्रत्येक अनुयोग के अवान्तर भेदों के द्वारा सिद्ध जीवों का अल्प - बहुत्व समझना चाहिए। क्षेत्र सिद्धों में जन्मसिद्ध एवं संहरणसिद्ध नामक सिद्ध होते हैं। इनमें कर्मभूमि सिद्ध और अकर्म भूमि सिद्ध है, उनका प्रमाण सबसे कम है किन्तु संहरण सिद्धों का प्रमाण और भी कम है। जन्म सिद्धों का प्रमाण उनका असंख्यात गुणा है । सहरण दो प्रकार के है - १. परकृत एवम् २. स्वयंकृत । संहरण-गमन-परकृत देव, चारणमुनि और विद्याधरों ने किया है। कर्मभूमि - अकर्मभूमिद्विप समुद्र - अधो- तिर्यग् लोकक्षेत्रों के भेद हैं। उसमें सबसे कम ऊर्ध्वलोक में से और उससे संख्यातगुण अधोलोक में से और उससे संख्यातगुणा तिर्यगलोक में से सिद्ध होते है। सबसे कम समुद्र में से और उससे संख्यातगुणा द्वीप सिद्ध होते हैं । यह सामान्यत: कहा गया है । विशेषत: गुणा से सिद्ध होते है ।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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