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________________ ९० ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १०।१ लोकान्त तक गति करने के पश्चात् मुक्तजीव (सिध्यमान जीव) स्थिर हो जाता है। उसके आगे वह गमन नहीं करता है। लोकान्त तक जाकर मुक्तजीव स्थिर हो जाता है, निष्क्रिय हो जाता है। * विशेष प्रश्नोत्तर प्रश्न समस्त कर्मों के क्षय होने पर तिरछी - बाँकी तथा निम्न न होकर उर्ध्वगति ही क्यों होती है? उत्तर प्रश्न उत्तर - ww - - - द्रव्य में जीव तथा पुद्गल - इन में द्रव्यों का स्वभाव ही गति करना है। पुद्गल का स्वभाव ऊर्ध्व, अधो तथा तिर्यक् गति करना है। पुद्गल, त्रिधा गति करने में सक्षम है। जैसे- दीप- ज्योति, अग्नि आदि का उर्ध्वगमन स्वभाव है । पवन का स्वभाव तिरछी ि करना स्वभाव है तथा पत्थर आदि का स्वभाव अधोगति करना है किन्तु आत्मा स्वभाव केवल उर्ध्वगति करने का है। ऊर्ध्वगति का स्वभाव हाने के कारण आत्मा, समस्त कर्मक्षय होते ही उर्ध्वगति करता है। आत्मा का स्वभाव यदि ऊर्ध्वगति करना ही है तो संसारी आत्मा त्रिधा (ऊर्ध्व, अध:, तिर्यक्) गति क्यों करता है? संसारी आत्मा कर्मों से आबद्ध है। अत: उसको निजकर्मानुसार गति करनी पड़ती है। कर्म-संग (कर्मबन्धन) दूर होते ही आत्मा सीधी ऊर्ध्वगति ही करता है । जैसे - शुष्क तुंबे का स्वभाव जल में डूबने का न होने पर भी यदि उसके ऊपर मिट्टी का अवलेप लगाकर जल में डाला जाये तो वह जल में डूब जाता है किंतु कुछ समय के पश्चात जब जल से मिट्टी का अवलेप घुल जाता है तो वह तुम्बा, जल के ऊपर तैरने लगता है । उसी प्रकार संसारी जीवात्मा के ऊपर कर्मरूपी मिट्टी का अवलेप होने के कारण वह संसाररूपी जल में डूबता है, किन्तु जब कर्म निर्जरा से आत्मा के उमर की कर्मरूपी मिट्टी का अवलेप हट जाता है तब वह संसार रूपी जल से उमर की ओर गति करता है और लोकान्त में जाकर ठहर जाता है। समाधान का अन्य प्रकार यह भी है जैसे- एरण्ड का फल जब पक जाता है और वह सूख जाता है तब बीजकोश फूटता है, और बीजप्राय: उमर की ओर उछलता है। जब तक बीजकोश फूटना नहीं तब तक वह एरण्ड बीज उसके अधीन रहता है किन्तु फूटने पर स्वतन्त्र होते ही उर्ध्वगतिशील होता है। ठीक इसी प्रकार संसारी जीव, कर्म से आबद्ध है। कर्म का बन्धन छूटते ही जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव (आत्मा) की स्वाभाविक गति-उर्ध्वगमन ही है।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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