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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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आकाश के उमरी सिरे से नीचे एक योजन बाद सिद्धशिला ( ईषत् प्राग्भारा ) नामक पृथ्वी है। जिस प्रकार रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वी हैं उसी प्रकार सिद्धशिला भी आठवीं पृथ्वी है। यह पृथ्वी स्फटिक जैसी श्वेत(सफदे) है। ऊपर के भाग में समतल है - वैसे गोलाकार - सी है । उसका विष्कंभ ( लम्बाई) ४५ लाख योजन है । वह बराबर मध्य के भाग में आठ योजन मोटी (जाड़ी) है। मध्यभाग के बाद हर तरफ से उसकी मोटाई क्रमश: घटती जाती है | सिरे के भाग में वह पक्षी के पंख से भी पतली है। इसका आकार द्वितीया के चन्द्रमा के समान है।
सिद्धशिला के ऊपरी भाग से सिद्ध जीवों के नीचे अन्तिम भाग तक ३% गाऊ का अन्तर है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सिद्धशिला के बाद ३५ गाऊ ऊपर जाते हुए श्री सिद्ध के जीव आते हैं। द्वीप में ही जीव मोक्ष पाते हैं । ढाई द्वीप का विष्कंभ ४५ लाख योजन का प्रमाण है ।
मुक्त + जीवाना + मूर्ध्वगति + हेतून् विशदयति
5 सूत्रम्
पूर्वप्रयोगा + दसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदा + तथागति + परिणामाच्च तद्गतिः॥१०-६॥
सुबोधिका टीका
पूर्वप्रयोगादिति । कर्मर्निलिप्तस्य मुक्तजीवस्य उर्ध्वगमने अनेकहेतवः सन्ति तेषु प्रथमस्तावत्-पूर्व प्रयोगः । कुलाल कृत - प्रयत्न - हस्त - दण्ड- चक्र संयोग प्राप्यं चक्रं तावद् भ्रमति यावत् पूर्वप्रयोगस्य संस्कार:। कुलाल हस्त- दण्डचक्र- संयोगेऽपगतेऽपि चक्रगतिः पूर्वप्रयोगास्तित्वमेव प्रदर्शयति । एवमेव कर्म निमित्तं प्राप्य जीवः संसारे भ्रमति । कर्मसंयोगादेकः संस्कारोऽपि जीवे समागच्छति। कर्मसंयोगा भावेऽपि तत् पूर्वप्रयोग संस्कार वशात् गमनं करोति । अयमेव पूर्व प्रयोगः । अयमेव सिद्धजीवस्य गतौ ( गमने ) हेतु: ।
असङ्गत्वादिति। द्वितीयोऽयं हेतुः । सर्वद्रव्येषु जीवानां पुद्गालानाञ्चैव गतिमत्त्वमङ्गीकृत + मस्ति। सङ्गस्तावत् सम्बन्ध: । बाह्य सम्बन्धं प्राप्य द्रव्यस्य स्वभाविरुद्ध + गति + र्भवितुमर्हति बाह्य संग (सम्बन्ध)- रहिते सति स्वाभाविक गतिरेव भवति । पुद्गलद्रव्यं तावदधोगतिशीलः जीवद्रव्यं तूर्ध्वगतिशील मस्ति । अतएव कर्मसङ्ग निर्मुक्त सिध्यमानगतिरुर्ध्वमेव भवति ।
बन्धच्छेदादिति। तृतीयोऽयं हेतुः । बन्धस्य बन्धानां वा छेदः - बन्धच्छेदः । यथा बीज को शस्य बन्धने स्फुटिते सति एरण्डवीजानानां गतिस्तथैव कर्म बन्धच्छेदाय सिध्यमान + जी + वगति + रप्यर्ध्वं भवतीति ज्ञेयम् ।
तथा + गति + परिमाणाच्चेति । चतुर्थोऽयं हेतुः ।