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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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जाती है। जैसे-एक हजार किलोमीटर से दूर नहीं जाना। इस तरह दिग्विरति व्रत में नियम किया है, तो इस व्रत में अहर्निश जहाँ-जहाँ जाने की जरूरत हो, कि सम्भावना हो; इतना ही देश छटा रख करके शेष देश का नियम करना। संयोगवशात् शारीरिक कारणोंवश या अन्य कोई भी मांदगी होय तो आज गह-घर के या होस्पिटल के बाहर नहीं जाना। ऐसा इस प्रकार का नियम करना। आज शहर, कि ग्राम से बाहर नहीं जाना, ऐसा भी नियम धार सकते हैं।
इस व्रत का फल-उक्त नियम से दिविरति में जो मर्यादा-हद छूट गई हो, उसका भी संकोच हो जाता है। इससे दिग्विरति व्रत में जो लाभ होता है वह लाभ इस व्रत में हो जाता है, किन्तु दिग्विरति व्रत की अपेक्षा इस व्रत में अधिक लाभ होता है।
__यहाँ पर दिविरति व्रत का संक्षेप यह उपलक्षण होने से व्रतों को (पाँच अणुव्रत, भोगोपभोग परिमाण, अनर्थदण्ड विरति इन सात व्रतों का) संकोच भी करवाने का विधान करने में पाया है। उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत में घारे हए चौदह नियमों का भी हमेशा यथाशक्य संक्षेप करना चाहिए। उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत में चौदह नियम धारने का विधान है तथा इस व्रत में भी धारे हुए चौदह नियमों का हमेशा संक्षेप करने का विधान है। इसलिए चौदह नियमों में दिशा का नियम भी पा जाने से चौदह नियमों के संक्षेप में दिशा का संक्षेप भी आ जाता है। इस व्रत को देशावगासिक व्रत भी कहने में आता है।
वर्तमान काल में देशावगासिक के देशविरति व्रत में कम से कम एकासणा के तप के साथ दस सामायिक करने का रिवाज है। सुबह और शाम के प्रतिक्रमण में दो सामायिक तथा अन्य पाठ सामायिक इस तरह दस सामायिक होती है।
यह व्रत ग्रहण करते समय 'मैं वर्ष में अमुक (पाँच-दश इत्यादि) देशावगासिक करूंगा।' ऐसा नियम करने में आता है। जिस तरह पूर्व में कहा, उस तरह एक दिन दश सामायिक करने से एक देशावगासिक व्रत होता है ।
इस नियम में जितने देशावगासिक धारे हों, उतने दिवस दस-दस सामायिक करने से इस व्रत का पालन होता है।
(८) अनर्थदण्डविरति गुणवत–अर्थ यानी प्रयोजन। जिससे आत्मा दण्डित हो अर्थात् दुःख पाये वह दण्ड है। पापसेवन से आत्मा दण्डाता है अर्थात् दुःख पाता है। इसलिए दण्ड यानी पापसेवन । प्रयोजनवशात् अर्थात् सकारण पाप का सेवन वह ही अर्थदंड है। "प्रयोजन के बिना, निष्कारण पाप का सेवन वह अनर्थदंड कहा जाता है।"
गृहस्थ को अपने गृहस्थ जीवन में स्वयं का तथा स्वजनादिक का निर्वाह करना पड़ता है। अतः गृहस्थ अपने लिए तथा स्वजनादि के निर्वाह के लिए जो पापसेवन करता है वह सप्रयोजन (सकारण) होने से अर्थदंड है। जिसमें स्वयं के या स्वजनादिक के निर्वाह का प्रश्न ही न हो, ऐसा पापसेवन अनर्थदण्ड है। अर्थात्-जिसके बिना गृहस्थावास चल सके वह पापसेवन अनर्थदण्ड कहा जाता है।