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________________ ( ११३ ) किन्तु चैकतमः कोऽपि, दृश्यते श्रूयते जनः । विनाशेन समं दृष्टं जगदेतच्चराचरम् ॥ ३५ ॥ * अर्थ-किन्तु उनमें से कोई भी राजा न तो माज दिखाई देता है और न लोगों के द्वारा सुना जाता है । यह चराचर संसार तो विनाश के वशीभूत है ।। ३५ ।। यावन्तो हि जना जाताः, न म्रियेरन् कदाचन । धरित्री खलु वासाय, तिलमात्रं न वा भवेत् ॥ ३६ ॥ अर्थ-जितने लोग संसार में उत्पन्न हुए, यदि वे नहीं मरते तो इस धरती पर रहने के लिए तिलमात्र भी स्थान नहीं मिलता ।। ३६ ।। __ फलानि ननु वृक्षेषु, यावन्ति प्रफलन्ति वै। न पतेयुर्धरापीठे, भगुरास्युमहीरुहाः ॥ ३७ ॥ * अर्थ-वृक्षों पर जितने फल पकते है क्या वे धरती पर नहीं गिरते हैं ? इस पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले सभी नाशवान होते हैं ।। ३७ ।। परिवर्तनशीलोऽयम्, शाल्मलि - कुसुमोपमः । संसारः सारहीनो हि, रम्यो गिरिकुटोपमः ॥ ३८ ॥ * अर्थ-शाल्मलि वृक्ष के फूल की तरह यह संसार परिवर्तनशील है। यह तो पर्वत के सारहीन शिखर की तरह है जो सुन्दर तो है पर प्राश्रय नहीं दे सकता है ।। ३८ ।। प्रभाते यन्न मध्याह्न, मध्याह्न न निशामुखम् । कुलालचक्रवन्नित्यं, जगद् भ्राम्यति सर्वदा ॥ ३९ ॥ अर्थ-जो प्रभात में है वह मध्याह्न में नहीं और जो मध्याह्न में है वह संध्या काल में नहीं। तो यह संसार तो कुम्भकार के चाक की तरह नित्य भ्रमणशील है ।। ३६ ॥ धनं धान्यं कलत्रं च, यौवनं नूतनं गृहम् । __ मनोहारि जगत् सर्व, प्रान्ते निर्माल्य सन्निभम् ॥ ४० ॥ * अर्थ-धन-धान्य, स्त्री, यौवन एवं नया घर ये सब संसार में मनोहारी लगते हैं, परन्तु अन्त में निर्माल्य के समान छोड़ने योग्य होते हैं ।। ४० ।।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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