________________
८।२६ ]
अष्टमोऽध्यायः
[ ५५
इससे एक ही समय में प्रत्येक आत्मप्रदेश में अनन्तानन्त कर्माणु बंधाते हैं । यह सूचना इस सूत्र में रहे हुए 'अनन्तानन्तप्रदेशा:' इस पद से मिलती है ।
यही स्वरूप पाँचवें कर्म ग्रन्थ की ७८-७९ गाथा में कहा है ।। ८-२५ ।। * पुण्यप्रकृतीनां निर्देश:
5 मूलसूत्रम्
सवेद्य-सम्यक्त्व हास्य रति पुरुष वेद- शुभायुर्नाम गोत्रारिण पुण्यम् ॥ ८- २६ ॥
* सुबोधिका टीका *
सातावेदनीयं, सम्यक्त्वं, हास्यं, रतिः, पुरुषवेदः, शुभायुष्यं ( देव- मनुष्य सम्बन्धि ) शुभनामकर्मणः प्रकृतयः, शुभगोत्रं ( अर्थाद् - उच्चगोत्रं ) चेति पुण्यमस्ति । तेभ्यो विपरीतं कर्म तत् पापमस्ति ।। ८- २६ ।।
* सूत्रार्थ - सातावेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ श्रायु ( मनुष्य तथा देव प्रायु), देव- मनुष्यगति प्रादि शुभनाम और शुभ-गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं ।। ८- २६ ।।
5 विवेचनामृत 5
यमान कर्म के विपाकों की शुभाशुभता जीव आत्मा के अध्यवसायों पर निर्भर है । शुभ अध्यवसाय का विपाक भी 'शुभ इष्ट' होता है, तथा अशुभ अध्यवसाय का विपाक भी 'अशुभ श्रनिष्ट' होता है । उनके परिणामों में संक्लेश की मात्रा जितनी न्यूनाधिक होगी, उतने ही परिणाम से शुभाशुभ कर्म की विशेषता रहेगी। शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकृतियों का बन्ध एक साथ एक समय होता है ।
परिणामों की इस प्रकार की धार नहीं है कि मात्र शुभ अथवा अशुभ एक ही प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध हो । उभय प्रकृतियों का एक ही साथ बन्ध होते हुए भी व्यावहारिक जो प्रवृत्ति है उसमें शुभत्व 'की तथा अशुभत्व की भावना मानी जाती है, वह केवल व्यावहारिक प्रवृत्ति की मुख्यता और गौणता पर है ।
जिस तरह शुभ परिणाम से पुण्य प्रकृतियों का शुभ प्रनुभाग (रस) बँधता है, उसी तरह अशुभ परिणाम से पापप्रकृतियों का अशुभ अनुभाग (रस) भी बँधता है । एवं जिस समय प्रशुभ परिणाम से पाप प्रकृतियों का अशुभ अनुभाग (रस) बंधता है, उसी समय उस परिणाम से पुण्य प्रकृति का शुभ अनुभाग (रस) बन्ध भी होता है तथापि शुभपरिणामों की प्रकृष्टता के समय शुभ अनुभाग की प्रकृष्टता रहती है, और अशुभ अनुराग निकृष्ट होता है ।