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________________ २८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।११ * उदाहरणों से वेवत्रिक का स्वरूप * * पुरुषवेद-तृण-घास की अग्नि के समान है। जैसे-तृण-घास की अग्नि शीघ्र प्रदीप्त होती है, तथा शान्त भी शीघ्र ही हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषवेद का उदय शीघ्र होता है तथा वह शान्त भी शीघ्र ही हो जाता है। * स्त्रीवेद काष्ठ की अग्नि के समान है। जसे काष्ठ की अग्नि जल्दी सुलगती नहीं है, वैसे ही स्त्रीवेद का उदय भी शीघ्र नहीं होता है, किन्तु काष्ठ की अग्नि सुलगने के बाद शीघ्र शान्त नहीं होती, वैसे स्त्रीवेद भी शीघ्र शान्त नहीं होता है। * नपुसकवेद-नगर के दाह (प्राग) के समान है। नगर के दाह (प्राग) की भांति नपुंसक वेद का उदय बहुत काल तक शान्त नहीं होता है। उक्त कथन के अनुसार मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेदों का वर्णन पूर्ण हुआ ।। ८-१० ॥ * आयुष्यकर्मणो भेदाः १ 卐 मूलसूत्रम् नारक-तैर्यग्योन-मानुष-दैवानि ॥ ८-११॥ * सुबोधिका टीका * प्रायुष्कं चतुर्भेदं नारकं तैर्यग्योनं मानुषं देवमिति । अर्थात्-नारकसम्बन्धि, तियंचसम्बन्धि, मनुष्यसम्बन्धि, देवतासम्बन्धि चेति चतुर्विधान्यायुष्यकर्माणि सन्ति ।। ८-११ ।। * सूत्रार्थ-नारक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार आयुष्यकर्म के भेद हैं ।। ८-११ ॥ के विवेचनामृत है जीव-मात्मा की एक शरीरावस्थित काल मर्यादा को प्रायुष्य कहते हैं। वह गति की अपेक्षा चार प्रकार की है। नारक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार प्रायुष्य कर्म के भेद हैं। (१) जिस कर्म के उदय से नरकगति का जीवन प्राप्त हो, वह नरक प्रायुष्य है। (२) जिस कर्म के उदय से तिर्यंचति का जीवन प्राप्त हो, वह तियंच प्रायुष्य है। (३) जिस कर्म के उदय से मनुष्यगति का जीवन प्राप्त हो, वह मनुष्य प्रायुष्य है। (४) जिस कर्म के उदय से देवगति का जीवन प्राप्त हो, वह देव प्रायुष्य है। इस तरह आयुष्यकर्म के चार भेद जानना ।। ८-११ ।।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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