SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।९-१० वेदनीय शब्द का प्रयोग तो जो वेदाता है अर्थात् अनुभवाता है, वह वेदनीय; इस सामान्य अर्थ में करने में आता है। ___ इस सामान्य अर्थ की दृष्टि से समस्त कर्म वेदनीय ही हैं। ऐसा होते हुए भी वेदनीय शब्द शास्त्र में तीसरे प्रकार के कर्म में रूढ़ बन गया है । यहाँ निद्रावेदनीयादिक में वेदनीय शब्द का रूढ़ अर्थ नहीं है, किन्तु जो वेदाता है वह वेदनीय ऐसा यौगिक अर्थ है। इसलिए उसमें वेदनीय शब्द का प्रयोग दोष रूप नहीं है ।। ८-८ ॥ * वेदनीयकर्मणोः द्वौ भेदाः * ॐ मूलसूत्रम् सदसवेद्ये ॥८-६॥ * सुबोधिका टोका * सद्वेद्यं प्रसवेद्यं च वेदनीयं द्विभेदं भवति । अर्थात्-सातानामकमसातानामक मिति द्विप्रकारकं वेदनीयकर्म भवति ।। ८-६ ॥ * सूत्रार्थ-सातावेदनीय तथा प्रसातावेदनीय ये वेदनीय कर्म के दो भेद हैं ।। ८-६ ॥ ॐ विवेचनामृतम सद्वेद्य सातावेदनीय। प्रसवेद्य असातावेदनीय, वेदनीय प्रकृति के ये दो भेद हैं । जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा को शारीरिक तथा मानसिक सुख का अनुभव होता है, वह सातावेदनीय कर्म है। एवं जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक दुःख का अनुभव होता है, वह असातावेदनीय कर्म है। अर्थात्-सुख और दुःख के अनुभव को क्रमश: सातावेदनीय कर्म तथा असातावेदनीय कर्म कहते हैं ।। ८-६ ।। * मोहनीयकर्मणोः भेदाः * 卐 मूलसूत्रम्दर्शन-चारित्रमोहनीय-कषाय-नोकषायवेदनीयासंख्यास्त्रि-द्वि-षोडश-नव भेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयानि कषाय-नोकषायौ, अनन्तानबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा स्त्री-पु-नपुंसकवेदाः ॥ ८-१०॥
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy