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________________ ७।२४ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६५ धन - गाय, भैंसादि तथा धान्य- अन्न आदि का परिमाण से संग्रह करना । लोभवश परिग्रह के प्रमाण में धारेल प्रमाण से अधिक चाँदी- सुवर्ण इत्यादि तथा रोकड़ नारणां रखना । वह हिरण्य' - सुवर्णातिक्रम कहे जाते हैं । (३) धन - धान्यप्रमाणातिक्रम - धन - गाय-भैंस इत्यादि तथा धान्य अन्न आदि के परिमाण से अधिक संग्रह करना । अर्थात् — गाय-भैंस आदि चौपाये प्राणी घन हैं तथा चावलचोखा, गेहूँ इत्यादि धान्य हैं । परिग्रह परिमाण में किये हुए परिमाण से अधिक धन-धान्य का स्वीकार करना, यह घन-धान्य प्रमारणातिक्रम है । (४) दासी - दासप्रमाणातिक्रम - यहाँ दासी दास पद से अभिप्राय धारे हुए प्रमाण से अधिक नौकर-चाकर एवं मयूर पोपट आदि पक्षियों का संग्रह करना है । (५) कुप्य प्रमाणातिक्रम - अल्प कीमत वाली लोहा-लोढ़ा श्रादि धातुनों, गृह-घर के उपयोग में आने वाली वस्तुनों, काष्ठ, तृरण- घास इत्यादिक का कुप्य में समावेश होता है । घारे हुए प्रमाण से अधिक कुप्य का संग्रह करना, वह कुप्यप्रमाणातिक्रम है । यहाँ पर क्षेत्र वास्तु इत्यादि पाँचों में परिग्रह के प्रमाण में धारे हुए प्रमाण से अधिक स्वीकार करने से साक्षात् रीत्या तो व्रत का भंग ही होता है । किन्तु इन पाँचों में क्रमश: योजन, प्रदान, बन्धन, कारण और भाव से हृदय में व्रतरक्षा का परिणाम होने से अर्थात् व्रतभंग नहीं होने से ये पाँच प्रतिचार रूप हैं । इनका निर्देश नीचे प्रमाणे है । [१] योजन- योजन यानी जोड़ना । एक गृह घर के अभिग्रहवाले को अधिक की जरूरत पड़ने पर अथवा किसी कारण से लेने की इच्छा होते हुए) व्रत का भंग होने के भय 'प्रथम गृह के समीप प |र्श्व में ही अन्य- दूसरे गृह-घर लेकर और बीच की दीवार हटाकर दोनों का योजन-जोड़ा करके एक गृह-घर बना लेते हैं । यहाँ पर दो गृह-घर होने से अपेक्षा से व्रत भंग होता है । किन्तु हृदय में व्रतरक्षा का परिणाम होने से अपेक्षा से पूर्ण भंग नहीं भी होता है । १. इस सम्बन्ध में कितनेक ग्रन्थों में हिरण्य यानी घड़ा हुआ सुवर्णं सोना तथा सुवणं यानी बिना घड़ा हुआ सुवर्ण - सोना, ऐसे अर्थं आते हैं । फिर कितनेक ग्रन्थों में इससे विपरीत अर्थ मी प्राते हैं । अर्थात् हिरण्य यानी बिना घड़ा हुआ सोना और सुवर्णं यानी घड़ा हुआ सोना । २. कितनेक ग्रन्थों में धन शब्द से मणिम (गिन सके ऐसी सोपारी इत्यादि); धरिम (काँटे से तौल करके ले सके और दे सके जैसे गुड़-गोल इत्यादि) ; मेय ( नाप कर ले सके और दे सके ऐसे गेहूँ इत्यादि) तथा परिछेद्य ( परीक्षा करके लेने में एवं देने में श्रावे ऐसे रत्नादिक ।) ये चार प्रकार धन के ग्रहण करने में श्राये हैं तथा गाय प्रमुख चौपाये प्राणियों व पक्षियों को दासी दास प्रमारणातिक्रम में दासी - दास पद से संग्रहीत समझना | ३. धर्मरत्न प्रकरण इत्यादि ग्रन्थों में यही द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम प्रतिचार है । उसमें समस्त प्रकार के मनुष्य-तियंचों का संग्रह करने में आया है । उसमें तीसरे प्रतिचार में धन शब्द से गणिमादि चार प्रकार के घन का संग्रह करने में आता है ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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