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________________ ७।२३ ] सप्तमोऽध्यायः तक अपनी पत्नी-स्त्री करके रखी होने से मेरी स्वयं अपनी ही पत्नी-स्त्री है। इस दृष्टि से यह अतिचार है। (३) अपरिगृहीतागमन-कुवारियों-कुमारिकाओं से या वेश्यादिक से प्रसंग करना। अर्थात्-जिसको किसी ने भी स्त्री तरीके स्वीकार नहीं किया हो, वह अपरिगृहीता। वेश्या, प्रोषित-भर्तृका (जिसका पति परदेश गया है ऐसी स्त्री), अनाथ स्त्री, कुमारिका-कन्या इत्यादि अपरिगृहीता स्त्री का उपभोग करना वह अपरिगृहीता गमन कहा जाता है। लोक में वेश्या आदि परस्त्री रूप में गिनी जाती है। किन्तु जिसका कोई पति-धणी नहीं हो, वह परस्त्री नहीं कहलाती है। इस तरह मान करके वेश्या आदि का सेवन करने वाले व्यक्ति की दृष्टि से व्रतभंग नहीं होने से यह ब्रह्मचर्य व्रत का तीसरा अपरिगृहीतागमन अतिचार है । * इत्वर परिगृहीतागमन तथा अपरिगृहीतागमन : ये दोनों अतिचार परस्त्री का त्याग करने वाले की अपेक्षा से हैं। स्वदारा-संतोष रूप व्रत ग्रहण करने वाले की अपेक्षा से तो ये दोनों सर्वथा व्रतभंग रूप हैं। कारण कि, उसने स्वस्त्री को छोड़कर अन्य समस्त स्त्रियों का त्याग किया है। इसी भाँति स्त्री को 'स्वपति संतोष' रूप एक ही व्रत होने से उसको भी ये दोनों अतिचार सामान्य से नहीं होते लेकिन अपेक्षा से तो उसको भी ये दोनों अतिचार लगते हैं। जब निज पति को अपनी सौत के वारा के दिन परिगृहीत किया हो तब उसके वारा को उल्लंघी अपने पति के साथ संभोग-विषयसेवन करते हुए द्वितीय दूसरा इत्वरपरिगृहीतागमन नाम का अतिचार लगता है तथा परपुरुष की तरफ विकार दृष्टि से देखे, उसकी तरफ आकर्षित हो, इत्यादि प्रसंगे तृतीय-तीसरा 'अपरिगृहीतागमन' नाम का अतिचार लगता है। (४) अनंगक्रीडा-कामभोग-मैथन सेवन के लिए दो अंग हैं। योनि तथा प्रजनन । इन दोनों के अतिरिक्त देह-शरीर के हस्तादिक अवयवों से क्रीडा करनी-कामसेवन करना, अर्थातअस्वाभाविक-सृष्टिविरुद्ध कामसेवन करना अथवा अनंग यानी कामराग। अत्यन्त-अतिशय कामराग उत्पन्न हो, ऐसी अधरचुम्बन इत्यादिक क्रीड़ा करनी, यह 'प्रनंगक्रीड़ा' कही जाती है । (५) तीवकामाभिनिवेश-मोहनीयकर्म के उदय से (मैथुन सेवन की) तीव्र इच्छा से मैथुन सेवना। अर्थात्-कामसेवन के लिए तीव्र अभिलाषा यह ब्रह्मचर्य व्रत का पंचम-पांचवा अतिचार है। __ परस्त्री-विरमण अथवा स्वदारा-संतोष इन दोनों प्रकार में से गमेते रीते ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने वाले को मैथुनसेवन का त्याग है। किन्तु ऐसी अनंगक्रीड़ा करने का त्याग नहीं है तथा तीव्र काम से मैथुन सेवन का साक्षात् त्याग नहीं है। इस दृष्टि से अनंगक्रीड़ा और तीव्र कामाभिनिवेश इन दोनों से व्रत का भंग नहीं होता है। परन्तु ब्रह्मचर्य का ध्येय..... काम की अभिलाषा इच्छा को कम करने का-घटाने का है। __अनंगक्रीड़ा तथा तीवकामाभिनिवेश इन दोनों में ध्येय का पालन नहीं होता है। कारण कि इन दोनों से काम-भोग की अभिलाषा-इच्छा में अभिवृद्धि होती है। इस परमार्थ दृष्टि से इन दोनों प्रकार के कामसेवन से व्रतभंग होता है ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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