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पञ्चमोऽध्यायः
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नित्यता की यह व्याख्या प्रत्येक सत् वस्तु में घटती है । समस्त सत् वस्तु परिवर्तन पामते हुए भी अपने भाव को अर्थात् मूल स्वरूप को त्यजती नहीं है । प्रत्येक सत् वस्तु परिवर्तन पामती है, इसलिए अनित्य है और परिवर्तन पामते हुए भी अपने मूल स्वरूप को त्यजती नहीं है, इसलिए नित्य है । उसको परिणामी नित्य कहने में आता है। परिणाम यानी परिवर्तन पामते हुए भी वह परिणामी नित्य है ।
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यह कथन सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने में श्रा जाय तो अपने को ख्याल आये बिना न रहे कि कोई भी वस्तु प्रत्येक क्षण में परिवर्तन पाये बिना नहीं रहती । समस्त वस्तु में प्रत्येक क्षण में न्यूनाधिक परिवर्तन अवश्य होता ही है । प्रतिक्षरण होता हुआ यह परिवर्तन प्रति ही सूक्ष्म होने से छद्मस्थता के कारण अपने ख्याल में नहीं आता है । किन्तु यह सूक्ष्म परिवर्तन सर्वज्ञ विभु केवली भगवन्त ही हथेली में रखे हुए आँवले की माफिक प्रत्यक्ष देख सकते हैं - जोह सकते 1 अपन तो मात्र स्थूल-स्थूल परिवर्तन को ही देख सकते हैं - जोह सकते हैं ।
प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में सूक्ष्म रूप में वा स्थूल रूप में परिवर्तन होते हुए भी वह अपने स्वरूप को ( द्रव्यत्व को ) कभी भी त्यजती नहीं है । अतः समस्त वस्तुओं को परिणामी नित्य कहते हैं । सर्वज्ञ विभु कथित श्रीजैनदर्शनसम्मत नित्यत्व स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए विरोधी भाव का निवारण नीचे प्रमाणे करते हैं
अन्य दार्शनिकों के समान जैनदर्शन विश्व ( वस्तु) के स्वरूप को अपरिवर्तनशील अर्थात् किसी प्रकार का परिवर्तन किये बिना सदा एक रूप रहने वाला नहीं मानता है । जिसमें अनित्य का सम्भव ही नहीं होता है, ऐसी कूटस्थ नित्यता जैन नहीं मानते । जिससे वस्तु पदार्थ में स्थिरत्व और अस्थिरत्व जैसे विरोधी भाव उत्पन्न न हों । तथा न ही जैनदर्शन वस्तु पदार्थ को एकान्त क्षणिक ही मानते हैं । यदि वस्तु को प्रत्येक क्षरण में उत्पत्ति तथा विनाश होने वाली मानकर, उसमें स्थिराधार नहीं मानें तो उक्त दोष प्राप्त हो सकता । अर्थात् - अनित्य परिणाम में नित्यता का सम्भव ही नहीं होता । किन्तु श्रीजैनदर्शन का यह मन्तव्य नहीं है । वे तो किसी भी वस्तु पदार्थ में एकान्त कूटस्थ नित्य या मात्र परिणामित्व भाव नहीं मानकर परिणामी नित्य अर्थात् परिवर्तनशील मानते हैं ।
जैसे -- कपड़े की दुकान से कापड़ का ताका लाये । ताका को काप करके पहनने के लिए दर्जी के द्वारा कोट, पतलून, कमीज इत्यादि वस्त्र बनाये । इससे क्या हुआ कि कापड़के ताके का विनाश हुआ और कोट, पतलून, कमीज श्रादि वस्त्र की उत्पत्ति हुई तो भी मूल द्रव्य में ( कापड़पणे में) किसी भी प्रकार का फेरफार नहीं हुआ । यहाँ तो कापड़ ताका रूपे विनाश पाकर कोटपतलून-कमीज आदि वस्त्र रूप में उत्पन्न होते हुए भी कापड़ रूपे कायम नित्य रहता है ।
इसी माफिक एक घट घड़े का उदाहरण लीजिए
पहिले स्थूल दृष्टि से विचार करते हुए दीर्घकाल पर्यन्त अपन को घट-घड़ा जैसा है वैसा ही देखने में आता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचारिये तो उसी घट घड़े में प्रतिसमय परिवर्तन हो रहा है ऐसा अवश्य ही लगेगा। लेकिन वह परिवर्तन अत्यन्त सूक्ष्म होने से अपने ख्याल में नहीं आता ।