SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०१० ] पञ्चमोऽध्यायः * पुद्गलप्रदेशानां परिमाणः * ॐ मूलसूत्रम्संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ ५-१०॥ * सुबोधिका टीका * पुद्गलानां संख्येया, प्रसंख्येया, अनन्ताश्च प्रदेशाः भवन्ति । अनन्ता इति वर्तन्ते । अन्यच्च पूरण-गलनस्वभावः पुद्गलः, अस्य परमाणुतः महास्कन्ध पर्यन्तानेकविचित्रावस्थाः। संख्यातपरमाणूनां स्कन्धः संख्यातप्रदेशी, असंख्यातपरमाणूनां स्कन्धः असंख्यातप्रदेशी अनन्तपरमाणूनाञ्च स्कन्ध अनन्तप्रदेशी भवति । अणुस्कन्धौ तु पुद्गलस्य द्वौ भेदौ, यदपि अणुरपि पुद्गलम्, पुद्गलमपि पूरणगलन स्वभाव युक्तम्, अत अस्यापि प्रदेशाः असंख्यातकाः ? किन्तु अत्र स्कन्धानां प्रदेशा एव कथिताः । अत्रोच्यते अनेकद्रव्यपरमाणूनां यथा घटादिकाः पुद्गलस्कन्ध-समप्रदेशाः तथा परमाणुभिः नैव ॥ ५-१० ।। * सूत्रार्थ-पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी होते हैं ।। ५-१० ॥ विवेचनामृत है पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। जीव की भांति पुद्गल द्रव्य भी अनन्त हैं। किसी पुद्गल द्रव्य के संख्यात प्रदेश होते हैं । किसी पुद्गल द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं तथा किसी पुद्गल द्रव्य के अनन्तप्रदेश होते हैं । संख्यात प्रदेश वाले पुद्गल द्रव्यों में भी अनेक प्रकार की तरतमता होती है। जैसे-किसी पुद्गल द्रव्य में दो प्रदेश, किसी में तीन प्रदेश, किसी में चार प्रदेश, किसी में सौ, किसी में हजार, किसी में लाख, किसी में करोड़ तथा किसी में उससे भी अतिघने प्रदेश होते हैं। इस तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेश वाले पुद्गलों में भी अनेक प्रकार की तरतमता-भिन्नता होती है। .....धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के प्रदेश संकोच तथा विकास की क्रिया से रहित हैं। नित्य विस्तृत ही रहे हुए हैं। जीव-आत्मा के और पुद्गल के प्रदेश संकोच तथा विकास पामते हैं। जब जीव-आत्मा हाथी के शरीर में से निकलकर कीड़ी के शरीर में आता है तब आत्मप्रदेशों का संकोच होने से समस्त प्रात्मप्रदेश कीड़ी के शरीर में ही समा जाते हैं।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy