SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता धर्मलाभ जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयम-जीवन के काल में पंचशत (५००) ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पंचशत (५००) ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है। पूर्वधर-वाचकप्रवरश्रीउमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर के जीवजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्ररूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ महान् ग्रन्थरत्न है। यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्माओं को, विद्ववर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को अर्हत् प्रवचनसंग्रह रूप में भी जाना है। पुरोवचन पूर्वधर महर्षि श्री उमास्वाति वाचक प्रणीत श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के इस पंचम अध्याय में कुल सूत्रों की संख्या ४४ है । इनके माध्यम से पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल इन पाँच अजीव द्रव्यों का वर्णन किया गया है। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल - ये पाँच अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है। जीव अनेक हैं, पुद्गल भी अनेक हैं किन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक ही हैं । पुद्गल द्रव्य रूपी है, शेष सब द्रव्य अरूपी हैं । पुद्गल और जीव ये दोनों द्रव्य क्रियावान हैं, धर्माधर्माकाश ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एकजीव के प्रदेश संख्या में समान हैं यानी ये सब असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है। पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी होते हैं। सभी द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य है। क्रमशः गति और स्थिति धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का 'उपकार' है। अवगाह देना आकाश का उपकार है। शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास यह पुद्गलों का उपकार है। जीव का उपकार परस्पर हित-अहित, सुख-दु:ख इत्यादि में निमित्त बनना है। वर्तना, परिणाम क्रिया और परत्वापरत्व काल का उपकार है। अनन्तर पुद्गल के भेद अणु और स्कन्ध, अणु और स्कन्ध की उत्पत्ति में कारणों का वर्णन है। द्रव्य का लक्षण है जिसमें गुण और पर्याय हों। काल अनन्त समय वाला द्रव्य है। आगे गुण और परिणाम के भेद और लक्षण बताये गये हैं।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy