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________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ६।२४ (उपकार) निष्काम स्नेह रखना इत्यादि कारण श्रीतीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करने के लिए बन्ध हेतु हैं। श्री अरिहन्तादिक वीश स्थानक पदों की आराधना से श्रीतीर्थकर नामकर्म बंधता है । श्री अरिहन्तादिक वीश पदों का प्रस्तुत सूत्र में कहे हुए प्रास्रवों में यथायोग्य समावेश हो जाता है। ये आस्रव समुदाय रूप से अथवा एक, एक, दो तीन इत्यादि भी तीर्थंकर नामकर्म के प्रास्रव हैं। इन आस्रवों के सेवन के साथ में जब विश्व-जगत के समस्त जीवों के प्रति विशिष्ट प्रकार की करुणा जगती है, तब श्रीतीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बन्ध होता है। श्रीतीर्थंकर परमात्मा के जीव तीर्थंकर के भाव से तीसरे भव में श्रीअरिहन्त आदि (वोशस्थानक के) पदों की आराधना करते हैं। तथा अपने हृदय में शुभ विचार करते हैं कि"समस्त गुणसम्पन्न सर्वज्ञविभु श्री तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित स्फुरायमान दिव्यप्रकाश करने वाला प्रवचन होते हुए भी महामोह के तिमिर-अन्धकार से शाश्वत सुख की सच्ची राह नहीं दिखाने से अत्यन्त ही दुःखी और विवेक से रहित जीव अतिगहन महाभयंकर इस संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। इसलिए "मैं इन जीवों को पुनीत प्रवचन अर्थात् श्री जैनशासन प्राप्त करा करके इस संसार-सागर से यथायोग्य पार उतारू।" इस तरह विश्व के समस्त जीवों के प्रति सर्वोत्कृष्ट करुणा भावना भाते हैं। सर्वदा परार्थव्यसनी तथा करुणादिक अनेक गुणों से समलंकृत वे जीव मात्र के प्रति ऐसी शुभ भावमा भाकर के बैठे नहीं रहते हैं। किन्तु जिस-जिस रीति से जीवों का कल्याण होवे उसी-उसी रीति से शक्य यत्न-प्रयत्न करते हैं। इससे वे श्रीतीर्थकर नामकर्म का निकाचित बन्ध करते हैं ।। ६-२३ ॥ * नीचगोत्रस्य प्रास्रवाः * + मूलसूत्रम्परात्मनिंदाप्रशंसेसदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचर्गोत्रस्य ॥ ६-२४ ॥ * सुबोधिका टीका * परनिन्दात्मप्रशंसा सद्गुणाच्छादनमसद्गुणोद्भावनं चात्मपरोभयस्थं नीचैर्गोत्रस्यास्रवाः भवन्ति ।। ६.२४ ।। * सूत्रार्थ-अन्य-दूसरे की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अन्य-दूसरे के सद्गुणों का पाच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन (प्रगट) करने से नीच गोत्रकर्म का प्रास्रव होता है ॥ ६-२४ ।। विवेचनामृत [१] परनिन्दा--अन्य-दूसरे की निन्दा करना। अर्थात्-अन्य-दूसरे के विद्यमान वा अविद्यमान दोषों को कुबुद्धि से प्रगट करना, वह परनिन्दा है ।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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