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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।२३
ॐ विवेचनामृत दर्शनविशुद्धि, विनय, शीलव्रत में अप्रमाद, पुनः पुनः ज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्तित्याग और तप, संघ और साधुओं की समाधि तथा वैयावच्च, अरिहन्त, प्राचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन की भक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मोक्षमार्ग की प्रभावना एवं प्रवचन-वात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं।
[१] दर्शनविशुद्धि-श्रीवीतरागविभु कथित तत्त्वों पर दृढ़ रुचि रखना। अर्थात्-शङ्कादिक पाँच अतिचारों से रहित सम्यग्दर्शन का पालन करना। यह 'दर्शनविशुद्धि' कही जाती है।
[२] विनयसम्पन्नता-ज्ञानादि मोक्षमार्ग का तथा उनके साधनों का बहुमान करना। अर्थात्--सम्यग्ज्ञान इत्यादि मोक्ष के साधनों का तथा उपकारी प्राचार्य आदि का योग्य सत्कार, सन्मान तथा बहुमान इत्यादि करना, यह विनयसम्पन्नता है।
(३) शीलवतादि-अपने नियमों को निरतिचार (दोषरहित) पने सेवन करना। अर्थात्---शील और व्रतों का प्रमाद रहित निरतिचारपने पालन करना, यह शीलवतादि है।
(४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-वारंवार-प्रतिक्षण वाचना आदि पाँच प्रकार के स्वाध्याय में रत रहना, वह अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।
(५) वारंवार संवेग-सांसारिक सुख से उदासीन भाव। अर्थात्- संसार के सुख भी दुःख रूप लगने से मोक्षसुख प्राप्त करने की इच्छा से उत्पन्न होते हुए शुभ आत्मपरिणाम, यह वारंवार संवेग है।
(६) यथाशक्ति त्याग–अपनी शक्ति के अनुसार न्यायोपार्जित वस्त्र-पात्र का सुपात्र में दान देना, यह यथाशक्ति त्याग है ।
(७) यथाशक्ति तप-अपनी शक्ति के माफिक बाह्य-अभ्यन्तर तप-तपश्चर्या का सेवन करना, वह यथाशक्ति तप है।
(८) संघ-साधु की समाधि-संघ में और साधुनों में शान्ति रहे ऐसा वर्तना। संघ में कभी भी अपने निमित्त से अशान्ति न हो ऐसा ध्यान रखना। और अन्य-दूसरे से हुई अशान्ति को दूर करने के लिए यत्न-प्रयत्न करना। श्रावक-श्राविकाओं को सद्धर्म में जोड़ना तथा साधुसाध्वी जी संयम का सुन्दर पालन कर सकें, इसके लिए सब शक्य करना इत्यादि । साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ है। साधुओं का संघ में समावेश हो जाने पर भी यहाँ साधुओं का अलग निर्देश संघ में श्रमण-साधुओं की मुख्यता-प्रधानता बताने के लिए है। अर्थात्"श्रमण प्रधान चतुर्विध संघ है।"
(8) संघ-साधनों का वैयावच्च-आर्थिक परिस्थिति में या अन्य कोई आपत्ति-विपत्तिसंकट में आये हुए सार्मिक श्रावक-श्राविकाओं को किसी भी प्रकार से सही रूप में अनुकूलता करनी । तथा त्यागी साधु-साध्वियों को आहार-पानी आदि का दान देना एवं शारीरिक अस्वस्थतामांदगी में औषधादिक से सेवा-भक्ति करनी इत्यादि । वह संघ-साधुओं का वैयावच्च (सेवाशुश्रूषा) है।