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________________ ६।१७-१८ ] षष्ठोऽध्यायः [ ३७ * तिर्यञ्चगतेः प्रायुष्यस्य प्रास्रवाः * 卐 मूलसूत्रम् माया तैर्यग्योनस्य ॥६-१७॥ * सुबोधिका टीका * मायाचारं तैर्यग्योनस्यास्रवो भवति ॥ ६-१७ ।। * सूत्रार्थ-मायाचार करने से तिर्यग् आयुष्य का प्रास्रव होता है ।। ६-१७ ॥ + विवेचनामृत माया-तिर्यंच योनि के आयुष्य का बन्ध हेतु प्रास्रव है । तियंचायुष्य (१) माया-छल-कपट के भावों से पर को ठगना। (२) गूढ़माया-माया में माया। (३) कूड़तौलमाप। (४) असत्य लेखादि का लिखना। ये सब तिर्यंच आयुष्यबन्ध के हेतु हैं । विशेष-कुधर्मदेशना, प्रारम्भ, परिग्रह, असत्य, अति अनीति, बहुकूट-कपट, नीललेश्या तथा कापोतलेश्या के परिणाम, एवं प्रार्तध्यानादिक भी तिर्यंच आयुष्य के प्रास्रव हैं। इन प्रास्रवों से भवान्तर में तियंचगति में, उत्पन्न होना पड़े, ऐसे अशुभ कर्मों का बन्ध होता है ।। ६-१७ ।। * मनुष्यगतेः प्रायुष्यस्यास्त्रवाः * म मूलसूत्रम्अल्पाऽऽरम्भ-परिग्रहत्वं-स्वभावमार्दवाऽऽर्जवं च मानुषस्य ॥ ६-१८ ॥ * सुबोधिका टीका * अत्र अल्पशब्दः प्रयोजनीभूतार्थे प्रयुक्तः । येन स्वप्रयोजनं सिद्धयति तादृशारम्भः तावद् एव परिग्रहणम् । मनुष्यायुषः प्रास्रवस्य हेतू एवमेव मार्दवार्जवी अपि तद् हेतू । मानाभावम् मार्दवम्, मायाचाराभावं प्रार्जवम् । स्वल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्यायुष प्रास्रवो भवन्ति ॥ ६-१८ ।।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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