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________________ २८ j श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे (१०) कागजों को इधर-उधर फेंक देना, पाँव लगाना तथा जलाना । ( ११ ) चरवला, प्रोघा तथा मुहपत्ति प्रादि के साथ पोथी-पुस्तक इत्यादि रखना । [ ६।१२ उक्त प्रस्रवों से भवान्तर में ज्ञान न चढ़े ऐसे अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । इसी तरह दर्शन गुरण के आश्रय से भी समझना । यहाँ दर्शन यानी तात्त्विक पदार्थों की श्रद्धा जानना । क्योंकि, विशिष्ट प्राचार्यादिक दर्शनी हैं । विशिष्ट ज्ञान के ग्रन्थ तथा जिनमन्दिरादिक दर्शन के साधन हैं । इसके समर्थन में कहा है कि " नवरं दर्शनस्य तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणस्य दर्शनिनां विशिष्टाचार्याणां दर्शनसाधनानां च सम्मत्यादि पुस्तकानामिति वाच्यम् ।" [ श्री हरिभद्रसूरि टीका ] ॥। ६-११ ॥ * सातावेदनीयकर्मणः श्रास्रवाः मूलसूत्रम् दुःख-शोक-त क- तापा -ऽऽक्रन्दन-वध- परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ।। ६-१२ ॥ * सुबोधिका टीका * कारणहेतुभिरेव असाता वेदनीय कर्मबन्धोः जायते । दुःखं शोकस्तापः, श्राक्रन्दनं वधः परिदेवनमित्यात्मसंस्थानि परस्य क्रियमाणानि उभयोश्च क्रियमाणानि असद्वेद्यस्यास्रवा भवन्ति । पीडापरिणामैः सुखशान्त्याभावैः श्राकुलं व्यग्रं मानसं दुःखमनुभवति । इष्टवियोगो शोकः । कृतकर्मपश्चातापः तापः । परितापविलापादिक्रिया श्राक्रन्दनम् । हननं वधः परिदेवनया रोदनं परिदेवनम् ।। ६-१२ ।। * सूत्रार्थ - दुःख, शोक, ताप, प्राक्रन्दन, वध और परिदेवन स्वयं करने, अन्य को कराने या दोनों में किए जाने से असातावेदनीय का बन्ध होता है ।। ६-१२ ।। विवेचनामृत 5 दुःख, शोक, संताप, आक्रंदन, वध और परिदेवन स्वयं अनुभवे अथवा अन्य को करावे तथा स्वयं भी अनुभवे और अन्य को भी करावे; इन तीनों रीतियों से असातावेदनीय कर्म का आस्रव बनता है । (१) दुःख - बाह्य तथा आन्तरिक पीड़ा रूप परिणाम उसे 'दुःख' कहते हैं । अर्थात्दुःख यानी अनिष्ट वस्तु का संयोग और इष्ट वस्तु का वियोग इत्यादि बाह्य के तथा राग इत्यादि अभ्यन्तर निमित्तों से असातावेदनीय कर्म के उदय से होती हुई पीड़ा जानना ।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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